SAMYAK PRAKASHAN
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Hindi Books, SAMYAK PRAKASHAN, Suggested Books, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, सही आख्यान (True narrative)
Pakistan Athva Bharat Ka Vibhajan
Hindi Books, SAMYAK PRAKASHAN, Suggested Books, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, सही आख्यान (True narrative)Pakistan Athva Bharat Ka Vibhajan
लेखक – डॉ. बी. आर. आंबेड़कर
आजकल भारत में मुख्य मुद्दा सवर्ण-दलित का है। इसमें कुछ बामसेफी, भीमसेना, सांभाजी ब्रिग्रेड़ वाले हिन्दू विरोधी गतिविधियों में भाग लेते है। इनका साथ मुस्लिम और ईसाई मिशनरी देते हैं। आजकल प्रचलित एक नेशनल दस्तक चैनल भी दलित-मुस्लिमों द्वारा सम्यक रुप से प्रसारित किया जाता है। नेशनल दस्तक से अतिरिक्त अन्य मंचों पर भी जैसे कि सोशल नेटवर्किंग साईटों, पत्र एवं पत्रिकाओं में भी दोनों मिलकर आपस में हिन्दु समाज के विरोध में अपने लेखों का सम्पादन करते है। वैदिक संस्कृति को आपस में मिलकर नष्ट करना चाहते हैं। यहां दलितों को सोचना चाहिए कि मुस्लिम उनकें साथ इसलिये नहीं है कि वे दलितों का उत्थान चाहते हैं बल्कि इसलिए है कि सवर्ण दलितों में फूट हो और हम लोग उसका फायदा उठाकर इससे लाभ उठायें।
दलित समाज जिन अम्बेड़कर जी को मानता है, वे स्वयं मुस्लिम कट्टरता और मुस्लिम धर्म ग्रन्थों के बहुत विरोध में थे। डॉ. अम्बेडकर किसी के मुस्लिम हो जाने पर मात्र मतपरिवर्तन नहीं मानते थे बल्कि वे इसे संस्कृति और सभ्यता परिवर्तन भी मानते थे। उनका कथन था कि विदेशी मत को अपनाने से व्यक्ति अपनी राष्ट्रीयता को नष्ट कर देता है और जिस विदेशी मत को उसने ग्रहण किया है उसी देश की राष्ट्रीयता का अनुयायी बन जाता है। यहीं कारण है कि डॉ. अम्बेडकर जी ने मतान्तरण में किसी विदेशी मुस्लिम और ईसाई मत न ग्रहण करके मात्र बौद्धमत अपनाया था।
ड़ॉ. अम्बेड़कर इस्लाम तुष्टिकरण के भी खिलाफ थे, उन्होनें कांग्रेस आदि के मुस्लिम तुष्टिकरण से अनेकों बार असंन्तुष्टि दर्शाई है किन्तु उनके आजकल के अनुयायी स्वयं मुस्लिम तुष्टिकरण के पक्ष में है। ड़ॉ. अम्बेड़कर नें तुष्टिकरण पर कुछ प्रश्न किये थे जो आज भी प्रासंगिक है –
- क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता ही एकमात्र भारत की राजनीतिक अभियोत्थान हेतु आवश्यक थी?
- क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता तुष्टीकरण या समझौते के माध्यम से प्राप्त की जा सकती थी।
- यदि एकता तुष्टिकरण से प्राप्त की जाती, वे कौन सी नई सुविधाएं हैं जो मुस्लिमों को दी जानी चाहिए।
- यदि समझौता विकल्प है तो समझौते की शर्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन है अथवा दो संविधान और सभाओं और सेवाओं में 50% भागेदारी?
- क्या दोनों सम्प्रदायों का एक मान्य संविधान हो सकता है?
- बगैर भौगोलिक एकता के हमेशा सीमा विवाद रहेंगे?
- क्या शान्ति से विभाजन नहीं हो सकता था?
इस प्रकार कई प्रश्न थे जो मुस्लिम तुष्टिकरण के सख्त विरोध में दृष्टिगोचर होते है। इन्हीं सब कथनों को लेते हुए, उन्होनें एक पुस्तक Thoughts on Pakistan लिखी थी, इसी पुस्तक का द्वितीय संस्करण Pakistan or Partition of India नाम से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में डॉ. अम्बेड़कर के जो इस्लाम पर मन्तव्य थे, वे प्रत्येक हिन्दू और नवबौद्ध को अवश्य पढ़नें चाहिए –
१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)
२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”
३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)
४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)
५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)
६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)
७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)
८. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।” (पृ. ३३६)
९. हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शबदावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गाँधी जी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।” (पृ. १७८)
(सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० से लिए गए हैं)
इस पुस्तक की आज के समय उपयोगिता देखते हुए, इसे हमारे मंच से भी उपलब्ध करवाया जा रहा है, जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति इसे पढ़े और विशेषकर नवबौद्ध समाज भी और समझे कि दलित-मुस्लिम एकता सब प्रकार से असम्भव है। इस पुस्तक को यदि विभिन्न नेता बिना पक्षपात के पढ़गें तो वे भी मुस्लिम तुष्टिकरण को गलत ही पायेंगे।
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषा में होने से सामान्य पाठक भी डॉ. अम्बेडकर के मुस्लिम तुष्टिकरण और इस्लाम पर विचारों से परिचित हो सकता है।
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