Culture
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Religious & Spiritual Literature, Vani Prakashan, इतिहास
Atharvved Ka Madhu
अथर्ववेद की मधु अभीप्सा गहरी है। यह सम्पूर्ण विश्व को मधुमय बनाना चाहती है। सारी दुनिया में मधु अभिलाषा का ऐसा ग्रन्थ नहीं है। कवि अथर्वा वनस्पतियों में भी माधुर्य देखते हैं। कहते हैं, “हमारे सामने ऊपर चढ़ने वाली एकलता है। इसका नाम मधुक है। यह मधुरता के साथ पैदा हुई है। हम इसे मधुरता के साथ खोदते हैं। कहते हैं कि आप स्वभाव से ही मधुरता सम्पन्न हैं। हमें भी मधुर बनायें।” स्वभाव की मधुरता वाणी में भी प्रकट होती है। प्रार्थना है कि हमारी जिह्वा के मूल व अग्र भाग में मधुरता रहे। आप हमारे मन, शरीर व कर्म में विद्यमान रहें। हम माधुर्य सम्पन्न बने रहें। यहाँ तक प्रत्यक्ष स्वयं के लिए मधुप्यास है। आगे कहते हैं, “हमारा निकट जाना मधुर हो। दूर की यात्रा मधुर हो। वाणी में मधु हो। हमको सबकी प्रीति मिले।” जीवन की प्रत्येक गतिविधि में मधुरता की कामना अथर्ववेद का सन्देश है।
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Vani Prakashan, इतिहास
Awadh Sanskriti Vishwakosh – 1
प्राचीन अवध के अन्तर्गत इन आठ राज्यों का उल्लेख प्राप्त होता है-1. वत्स 2. कौशाम्बी 3. कोसल-साकेत 4. श्रावस्ती 5. कान्यकुब्ज 6. अन्तर्वेद 7. भारशिव (बैसवारा) 8. शर्की (जौनपुर)। यही रामराज्य की वास्तविक परिधि थी। यद्यपि कवियों ने रामराज्य को देश-देशान्तर तक व्याप्त दिखाया है, किन्तु वह मंगलाशा मात्र है। गोस्वामी जी ने लिखा है- “सप्तद्वीप सागर मेखला” किन्तु यह कथन एक प्रकार की कवि प्रौढ़ोक्ति है। अकबर ने पूरे मुगल राज्य को 1590 ई. में कुल 12 सूबों में बाँटा था। सूबाए औध में 5 सरकारें थीं-लखनऊ, फैजाबाद, खैराबाद, बहराइच, गोरखपुर। बाद में गोरखपुर अलग कमिश्नरी से जुड़ गया। मध्यकाल में अयोध्या पर समय-समय पर कई वंशों ने राज्य किया, जिनमें मुख्य हैं-1. खिलजी वंश 2. तुगलक वंश 3. मुगल वंश 4. सोलंकी राजा 5. कान्यकुब्ज नरेश 6. परिहार वंश 7. लोदी वंश 8. गहरवार वंश 9. नवाबी शासन। अंग्रेजी शासन में अवध के भीतर सुल्तानपुर, जौनपुर, प्रतापगढ़, टाँडा और मानिकपुर को सम्मिलित कर लिया गया और गोरखपुर को पृथक कर दिया गया। बाद में अयोध्या पर शाकद्वीपीय राजाओं का अधिकार रहा। लाला सीताराम ने ‘अयोध्या का इतिहास’ में इन सबका विस्तृत विवरण दिया है। इस विशाल क्षेत्र का भौगोलिक परिवेश अत्यन्त बहुरंगी तथा सुरम्य है। इसकी अधिकांश भूमि वनों से ढकी है। भूवैज्ञानिक संरचना की दृष्टि से यह क्षेत्र कई हिस्सों में बँटा है। इस क्षेत्र का काफी भाग हिमालय की तराई (गाँजर) क्षेत्र में आता है। खीरी, बहराइच, गोण्डा, बलरामपुर, सीतापुर, श्रावस्ती जिले इसी गाँजर क्षेत्र के जिले हैं। उत्तर में यह हिमालय की एक समानान्तर श्रेणी है। दूसरा क्षेत्र गंगा यमुना का मैदान (दोआबा) कहलाता है।
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Vani Prakashan, इतिहास
Awadh Sanskriti Vishwakosh – 2
हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास में अवध का महत्वपूर्ण स्थान है। विद्वानों ने इसे ‘मध्य देश’ कहा है। लन्दन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रुपर्ट स्नेल ने किसी प्रसंग में ठीक ही कहा था कि काशी विद्या की नगरी है, किन्तु वहाँ लिखी-बोली जा रही खड़ीबोली हिन्दी पर जनपदीय बोलियों का बड़ा प्रभाव है। दिल्ली केन्द्रीय महानगर है, परन्तु वहाँ की हिन्दी पंजाबीपन से प्रेरित है। मानक हिन्दी का रूप तो गंगा-यमुना के मैदान अर्थात् अन्तर्वेद में प्राप्त होता है। यही कारण है कि हिन्दी के मानकीकरण का आन्दोलन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के माध्यम से यहीं से शुरू हुआ। यह उल्लेखनीय है कि द्विवेदी जी बैसवारा के निवासी थे और ‘सरस्वती’ पत्रिका इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी। इस क्षेत्र के साहित्यकारों ने रचनात्मक क्षेत्र में सदैव अपनी अग्रणी भूमिका निभायी है। मुल्ला दाऊद ने ‘चन्दायन’ महाकाव्य लिखकर सूफी काव्य धारा का प्रवर्तन किया। उसे जायसी ने पदमावत द्वारा शिखर पर पहुंचा दिया। तात्पर्य यह कि सूफी काव्य और महाकाव्य इसी क्षेत्र के प्रयोग हैं। सरहपाद के ‘दूहाकोश’, गोरखनाथ की ‘सबदी’ और विद्यापति की अवहट्ट भाषा में अवधी का गहरा पट है, जिससे यह सिद्ध होता है कि हिन्दी जगत की सबसे पुरानी काव्य भाषा है अवधी। गोस्वामी जी ने ‘रामचरितमानस’ जैसा महाकाव्य रचकर इसे विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया। ‘मानस’ की परम्परा में। यहाँ दर्जनों रामकाव्य रचे गये हैं, जो हिन्दी की अमूल्य निधि हैं।
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Vishwavidyalaya Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bhojraj
धाराधीश राजा भोज भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संस्कृति और इतिहास के मानदण्ड हैं। उन्होंने तलवार के क्षेत्र में कभी समझौता नहीं किया, पर लेखनी के क्षेत्र में सदा समन्वय का मार्ग स्वीकार किया। अपने 55 वर्ष 7 मास 3 दिन के शासन काल में वे वीरता और विद्वत्ता के प्रमाण बन गये। साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, कोश, व्याकरण, राजनीति, धर्मशास्त्र, शिल्प, दर्शन, विज्ञान, रसायन आदि अपने युग के प्राय: सभी ज्ञात विषयों पर भोज ने साधिकार जो अनेक ग्रन्थ रचे उनमें से 80 से अधिक के नाम ज्ञात हैं। इनमें से प्राय: आधे ग्रन्थ सुलभ भी हैं। उनमें से उनकी कतिपय पुस्तकें ही प्रकाशित और उनमें से भी बहुत कम सुलभ हैं। राजा भोज के ताम्रपत्र, शिलालेख, भवन, मन्दिर, मूर्तियाँ आदि पुरा प्रमाण प्राप्त होते हैं। भारतीय परमपरा में विक्रमादित्य के बाद राजा भोज का ही सर्वाधिक स्मरण किया जाता है। राजा भोज न केवल स्वयं विद्वान अपितु विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। इतिहास-पुरुष होने पर भी वे अपनी अपार लोकप्रियता के कारण मिथक पुरुष हो गये। भारतीय परमपरा के ऐसे शलाका पुरुष का प्रामाणिक परिचय इस भोजराज ग्रन्थ में संक्षेप में दिया जा रहा है। हिन्दी में यह पहली पुस्तक है जिसमें साहित्य और संस्कृति के प्रकाश स्त?भ राजा भोज को पूरी तरह से पहचानने की कोशिश की गयी है। वाग्देवी के आराधक तथा असि और मसि के धनी भोज को समझने के लिए यह ग्रन्थ सबके लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
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Vani Prakashan, रामायण/रामकथा
Chhattisgarh ke LokJeevan Mein Ram
संत तुलसीदास के राम एक थे, दुष्टता का पर्याय रावण एक था। उस समय की रामायण बहुत सरल थी और आज की रामायण? वर्तमान की रामायण उस रामायण से कहीं ज्यादा कठिन है, यही बात कवि की इस “ इतने राम कहा से लाऊँ” में दिखाई देता है। और यह सच है कि ‘ राम कि एक अवधी निश्चित थी, अपने दिवस अनिश्चित हैं। छत्तीसगढ़ के निवासियों में राम-राम, जय राम, सीताराम का अभिवादन सुनकर स्पष्ट हो जाता है कि राम कहना हमारी जिह्वा का स्वभाव है और स्वभाव इसलिए है क्योंकि राम छत्तीसगढ़ कि आत्मा में बसे हुए हैं।
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Govindram Hasanand Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Dharam ka Yatharth Swaroop
Govindram Hasanand Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, धार्मिक पात्र एवं उपन्यासDharam ka Yatharth Swaroop
भारतवर्ष मंे आज भी धार्मिक एवं जातिगत मतभेद विकट रूप में विद्यमान हैं। उपर्युक्त परिस्थितियों को सुनकर और देखकर लेखक के हृदय में एक विचार प्रस्फुटित हुआ कि क्यों न एक ऐसी पुस्तक का निर्माण किया जाए, जिसमें विभिन्न पन्थों के मूल सिद्धान्तों का परिचय और उसका उद्देश्य समाहित हो।
अतः चार महीने का अवकाश लेकर लेखक ने विभिन्न सम्प्रदायों की लगभग दो सौ पचास पुस्तकों का अध्ययन किया और उन विषयों के अधिकारिक विद्वानों से परस्पर विचार-विमर्श भी किया। तदुपरान्त यह समझ में आया कि सभी पन्थ अपने मूलरूप में परस्पर अत्यधिक साम्यता रखते हैं। सभी के मार्ग भले ही क्यों न पृथक्-पृथक् हों परन्तु सभी का लक्ष्य एक ही है।
ऋग्वेद के अनुसार ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति‘। अर्थात् सत्य एक ही है, जिसे विद्वान् विभिन्न प्रकार से व्याख्यायित करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न सम्प्रदायों के मूल सिद्धान्तों का उसी रूप में वर्णन किया गया है जिस रूप में वे सिद्धान्त उस पन्थ में विद्यमान हैं। निष्कर्ष में सभी पन्थों के सिद्धान्तों में विद्यमान पारस्परिक साम्यता का विवेचन किया गया है। आशा है कि जेखक का यह छोटा-सा प्रयास समाज में धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वासों तथा वैमनस्य को दूर करेगा तथा भिन्न-भिन्न पन्थों के अनुयायियों के मध्य सौहार्द, परस्पर प्रेम को उत्पन्न करने में अपना सहयोग प्रदान करेगा और महिलाओं का यथोचित सम्मान एवं गरिमा प्रदान करने के लिए इस विकसित समाज को प्रेरित करेगा।SKU: n/a -
Hindi Books, Vani Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Keral Ki Sanskritik Virasat
केरल की संस्कृति पिछले सदियों में विकसित हुई है, जो भारत और विदेशों के अन्य हिस्सों से प्रभावित है।यह अपनी प्राचीनता और मलयाली लोगों द्वारा संघटनात्मक निरंतरता द्वारा परिभाषित की जाती है। शास्त्रीय पुरातनता से भारत और विदेशों के विभिन्न हिस्सों से पलायन कर आये लोगो के कारण आधुनिक केरल समाज ने आकार लिया है।
केरल की गैर-प्रागैतिहासिक सांस्कृति का संबंध तीसरी शताब्दी के आसपास, एक विशिष्ट रूप से ऐतिहासिक क्षेत्र से है, जिसे थंबीजोम कहा जाता है, जो एक आम तमिल संस्कृति वाला क्षेत्र है, जहां चेरा, चोल और पंड्या राजवंशो का उत्थान हुआ। उस समय, केरल में पाया जाने वाला संगीत, नृत्य, भाषा (पहली द्रविड़ भाषा – “द्रविड़ भाषा” तत्कालीन तमिल) और संगम (1,500-2, 000 साल पहले रचा गया तमिल साहित्य का एक विशाल कोष) थंबीजोम (आज का तमिलनाडु) के बाकी हिस्सों के समान ही था। केरल की संस्कृति द्रविड़ लोकाचार के संस्कृतकरण, धार्मिक आंदोलनों के पुनरुत्थान और जातिगत भेदभाव के खिलाफ सुधार आंदोलनों के माध्यम से विकसित हुई|केरल एक ऐसी संस्कृति को दर्शाता है जो सभ्य जीवन शैली के विभिन्न संकायों के आवास, उच्चारण और आत्मसात के माध्यम से विकसित हुई है।
केरल के सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देनेवाले कलारूपों में लोककलाओं, अनुष्ठान कलाओं और मंदिर कलाओं से लेकर आधुनिक कलारूपों तक की भूमिका उल्लेखनीय है। केरलीय कलाओं को सामान्यतः दो वर्गों में बाँट सकते हैं – एक दृश्य कला और दूसरी श्रव्य कला। दृश्य कला के अंतर्गत रंगकलाएँ, अनुष्ठान कलाएँ, चित्रकला और सिनेमा आते हैं।SKU: n/a -
Vani Prakashan, अन्य कथा साहित्य, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास
Patna Khoya Hua Shahar
अपनी मृत्यु के कुछ महीने पहले बुद्ध ने पाटलिपुत्र की महानता की भविष्यवाणी की थी। कालान्तर में पाटलिपुत्र मगध, नन्द, मौर्य, शुंग, गुप्त और पाल साम्राज्यों की राजधानी बनी। पाटलिपुत्र के नाम से विख्यात प्राचीन पटना की स्थापना 490 ईसा पूर्व में मगध सम्राट अजातशत्रु ने की थी। गंगा किनारे बसा पटना दुनिया के उन सबसे पुराने शहरों में से एक है जिनका एक क्रमबद्ध इतिहास रहा है। मौर्य काल में पाटलिपुत्र सत्ता का केन्द्र बन गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था। मौर्यों के वक़्त से ही विदेशी पर्यटक पटना आते रहे। मध्यकाल में विदेशों से आने वाले पर्यटकों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई। यह वह वक़्त था जब पटना की शोहरत देश की सरहदों को लाँघ विदेशों तक पहुँच गयी थी। यह मुग़ल काल का स्वर्णिम युग था। पटना उत्पादन और व्यापार के केन्द्र के रूप में देश में ही नहीं विदेशों में भी जाना जाने लगा। 17वीं सदी में पटना की शोहरत हिन्दुस्तान के ऐसे शहर के रूप में हो गयी थी, जिसके व्यापारिक सम्बन्ध यूरोप, एशिया और अफ्रीका जैसे महादेशों के साथ थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी और ब्रिटिश इण्डिया में पटना और उसके आसपास के इलाकों में शोरा, अफीम, पॉटरी, चावल, सूती और रेशमी कपड़े, दरी और कालीन का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। पटना के दीघा फार्म में तैयार उत्पादों की जबरदस्त माँग लन्दन के आभिजात्य लोगों के बीच थी। विदेशी पर्यटक और यात्री कौतूहल के साथ पटना आते। उनके संस्मरणों में तत्कालीन पटना सजीव हो उठता है। इस पुस्तक में उनके संस्मरण और कई अन्य रोचक जानकारियाँ मिलेंगी।
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Vani Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास
Rang Parampara
अत्यन्त समृद्ध नाट्य-परंपरा और सक्रिय आधुनिक नाट्य स्थिति के बावजूद न सिर्फ़ हिन्दी बल्कि भारत की किसी भी भाषा में समकक्ष रंगालोचना विकसित नहीं हो पायी है। नये रंगविचार की रोशनी में अपनी रंग परम्परा को खोजने और उसके पुनराविष्कार के अनेक प्रयत्न रंगमंच पर हुए हैं और उन्हें अपनी परम्परा में अवस्थित कर आलोचनात्मक दृष्टि से समझने की कोशिश कम ही हो पायी है। वरिष्ठ साहित्यकार नेमिचन्द्र जैन पिछली लगभग अर्द्धशती से हिन्दी और समूचे भारतीय रंगमंच के सजग और प्रबुद्ध दर्शक और समीक्षक रहे हैं। हिन्दी में तो उन्हें रंग समीक्षा का स्थपति ही माना जाता है। उनमें परम्परा, उसके पुनराविष्कार और उसके रंगविस्तार की गहरी समझ और उसकी बुनियादी उलझनों की सच्ची पकड़ है। उन्होंने आलोचना की एक रंगभाषा खोजी और स्थापित की है। उसी रंगभाषा और उसमें समाहित एक गतिशील और आधुनिक रंगदृष्टि से उन्होंने हमारी रंग परम्परा का गहन विश्लेषण किया है। दृष्टि का ऐसा खुलापन, समझ का ऐसा चौकन्ना सयानापन और समग्रता का ऐसा आग्रह हिन्दी में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में दुर्लभ है। अगर पिछले पचास वर्ष के भारतीय रंगमंच को, उसकी बेचैनी और जिजीविषा को, उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को, उसकी शक्ति और विफलता को समझना हो तो यह पुस्तक एक अनिवार्य सन्दर्भ है। सबके लिए, फिर वह दर्शक हो, या रंगकर्मी, नाटककार या समीक्षक।
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Religious & Spiritual Literature, Vani Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Rigveda : Parichaya(PB)
Religious & Spiritual Literature, Vani Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृतिRigveda : Parichaya(PB)
ऋग्वेद आदिम मानव सभ्यता के बाद का विकास है। लेकिन इसमें तत्कालीन सभ्यता के पहले के भी संकेत हैं। ऋग्वेद में इतिहास है, ऋग्वेद इतिहास है। प्राचीनतम काव्य है। प्राचीनतम दर्शन है। प्राचीनतम विज्ञान है। इसमें प्राचीनतम कला और रस-लालित्य है। प्राचीनतम सौन्दर्यबोध भी है। अतिरिक्त जिज्ञासा है। सुख आनन्द की प्यास है। ऋग्वेद में भरापूरा इहलोकवाद है और आध्यात्मिक लोकतन्त्र भी है। भारत के आस्तिक मन में यह ईश्वरीय वाणी है और अपौरुषेय है। वेद वचन अकाट्य कहे जाते हैं। अन्य विश्वासों की तरह यहाँ ईश्वर के अविश्वासी नास्तिक नहीं हैं। नास्तिक-आस्तिक के भेद वेद विश्वासअविश्वास से जुड़े हैं। जो वेद वचनों के निन्दक हैं, वे नास्तिक हैं। वेद वचनों को स्वीकार करने वाले आस्तिक हैं। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति और दर्शन का आदि स्रोत है। विश्व मानवता का प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख है। प्रायः इसे रहस्यपूर्ण भी बताया जाता है। इसके इतिहास पक्ष की चर्चा कम होती है। इसका मूल कारण इतिहास की यूरोपीय दृष्टि है। भारत में इतिहास संकलन की पद्धति यूरोप से भिन्न है। स्थापित यूरोपीय दृष्टि से भिन्न दृष्टि काल मार्क्स ने भी अपनायी थी। इस दृष्टि से ऋग्वेद का विवेचन भारतीय मार्क्सवादी विद्वानों ने भी किया है। ऋग्वेद साढ़े दस हज़ार मन्त्रों वाला विशालकाय ग्रन्थ है। आधुनिक अन्तर्ताना-इंटरनेट तकनीकी से बेशक इसकी सुलभता आसान हुई है लेकिन इसका सम्पूर्ण अध्ययन परिश्रम साध्य है।
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Vani Prakashan, इतिहास
Sangam Ki Reti Par Chalees Din
The capability of reading and other personal skills get improves on reading this book Sangam Ki Reti Par Chalees Din by Dhananjai Chopra.This book is available in HINDI with high quality printing.Books from Culture category surely gives you the best reading experience.
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Vani Prakashan, उपन्यास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
SANKARMAN KI PEERA
किसी भी गतिशील समाज में संक्रमण एक प्रक्रिया का नाम है, एक अपरिहार्य कालस्थिति का द्योतक। इसमें जिस तीव्रता से उलट-फेर होते हैं, उनसे अक्सर समाज की स्वस्थ परम्पराओं को भी नुकसान पहुँचता है। जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ घटित होता हुआ दिखायी देता है, जिससे किसी भी देश के ऐतिहासिक सामरस्य में ‘सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अराजकता व्याप्त हो जाती है; भ्रांति को हम क्रान्ति समझ लेते हैं, समस्याएँ और भी उलझ जाती हैं, उनके कोई हल नहीं निकलते है।’ प्रो. दुबे की यह कृति एक दुर्लभ रचनात्मक धीरज के साथ भारतीय समाज के वर्तमान संक्रमण-काल का एक ऐसा अध्ययन है, जिससे प्रत्येक सजग पाठक को गुजरना चाहिए।
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Vani Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
VIKAS KA SAMAJSHASTRA
पिछले कुछ वर्षों से विकास और आधुनिकीकरण की हवा दुनिया-भर में अन्धड़ का रूप धारण किए हुए है। उससे उड़ती हुई गर्दो-गुबार आज आँखों तक ही नहीं, दिलो-दिमाग तक भी जा पहुँची है। ऐसे में जो मनुष्योचित और समाज के हित में है, उसे देखने, महसूसने और उस पर सोचने का जैसे अवसर ही नहीं है। मनुष्य के इतिहास में यह एक नया संकट है, जिसे अपनी मूल्यहंता विकास-प्रक्रिया के फेर में उसी ने पैदा किया है। यह स्थिति अशुभ है और इसे बदला जाना चाहिए। लेकिन वर्तमान में इस बदलाव को कैसे सम्भव किया जा सकता है या उसके कौन-से आधारभूत मूल्य हो सकते हैं, यह सवाल भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि बदलाव। कहना न होगा कि सुप्रतिष्ठित समाजशास्त्री डॉ. श्यामाचरण दुबे की यह कृति इस सवाल पर विभिन्न पहलुओं से विचार करती है।
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Hindi Books, Vishwavidyalaya Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास
Vishwa Guru Bharat
विश्वगुरु भारत
लेखक
महामहोपाध्याय
प्रो. अभिराज राजेन्द्रमिश्रप्राचीन भारत की भूमि! मानवता की आधारशिला! हे समादरणीय मातृभूमि! तेरी जय हो, जय हो।
जबकि नृशंस आक्रमणों को शताब्दियाँ अभी भी जनपथ की धूलिपतों के नीचे दफन नहीं हो पाई हैं, हे विश्वास की पितृभूमि! प्रेम, कवित्व एवं विज्ञान की वसुन्धरा! तेरी जय हो।
ईश्वर करे हम अपने पाश्चात्य के भविष्य में भी तुम्हारी अतीत की पुन: प्रतिष्ठा का अभिनन्दन करें!!
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