Narendra Kohli Books
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Rajpal and Sons, उपन्यास
Aatank
सुपरिचित उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली की गणना आधुनिक युग के सशक्त कथाकारों में की जाती है। सामाजिक उपन्यासों के अतिरिक्त उन्होंने धार्मिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर अनेक उपन्यासों की रचना की है जो अत्यन्त लोकप्रिय हुए हैं। प्रस्तुत उपन्यास आतंक उनका एक सफल उपन्यास है जिसमें उन्होंने आधुनिक समाज में चारों ओर बढ़ती अव्यवस्था, बिखराव और असुरक्षा का सशक्त चित्रण किया है। यह आदि से अंत तक रोचक और पठनीय है। नरेन्द्र कोहली की अन्य लोकप्रिय पुस्तकें हैं-साथ सहा गया दुख, अभिज्ञान, जंगल, सबसे बड़ा सत्य और हत्यारे।
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Rajpal and Sons, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Abhigyaan
2017 में ‘पद्मश्री’ और 2012 में ‘व्यास सम्मान’ से अलंकृत नरेन्द्र कोहली की गणना हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों में होती है। 1947 के बाद के हिन्दी साहित्य में उनका योगदान अमूल्य है। उन्होंने प्राचीन महाकाव्यों को आधुनिक पाठकों के लिए गद्य रूप में लिखने का एक नया चलन शुरू किया और पौराणिक कथानकों पर अनेक साहित्यिक कृतियाँ रचीं। ‘अभिज्ञान’ के कथानक की रचना गीता में वर्णित कृष्ण के कर्म-सिद्धान्त की आधार भूमि है। लेकिन यह उपन्यास कर्म-सिद्धान्त की पुष्टि के लिए नहीं, उसे समझाने के लिए है, जिससे साधारण मनुष्य भी अपने जीवन में इसका पालन कर सकता है। एक सांस्कृतिक उपन्यास जो प्राचीन और आज की शिक्षा-प्रणाली, गुरु-शिष्य परंपरा की अंतर्कथा भी है। तोड़ो कारा तोड़ो, वसुदेव, साथ सहा गया दुख, हत्यारे, आतंक और वरुणपुत्री उनकी अन्य लोकप्रिय पुस्तकें हैं।
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Hindi Books, Suggested Books, Vani Prakashan, रामायण/रामकथा
Abhyuday Set Of 2 (Hindi, Narendra Kohali)
-15%Hindi Books, Suggested Books, Vani Prakashan, रामायण/रामकथाAbhyuday Set Of 2 (Hindi, Narendra Kohali)
अभ्युदय – 1
‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधृत हिन्दी का पहला और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेज़ी में इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार एक ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सार्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादात्म्य होता है।
‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जाएगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्त्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।अभ्युदय – 2
‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधृत हिन्दी का पहला और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेज़ी में इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार एक ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सार्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादात्म्य होता है।
‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जाएगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्त्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
ADHIKAR : MAHASAMAR – 2
Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीताADHIKAR : MAHASAMAR – 2
नरेन्द्र कोहली
‘अधिकार’ की कहानी हस्तिनापुर में पाण्डवों के शैशव से आरम्भ हो कर, वारणावत के अग्निकाण्ड पर जा कर समाप्त होती है। वस्तुतः यह खण्ड ‘अधिकारों’ की व्याख्या, अधिकारों के लिए हस्तिनापुर में निरन्तर होने वाले षड्यन्त्र, अधिकार को प्राप्त करने की तैयारी तथा संघर्ष की कथा है। राजनीति में अधिकार प्राप्त करने के लिए होने वाली हिंसा तथा राजनीतिक त्रास के बोझ में दबे हुए असहाय लोगों की पीड़ा की कथा समानान्तर चलती है। सतोगुणी राजनीति तथा तमोन्मुख रजोगुणी राजनीति का अन्तर इसमें स्पष्ट होता है। एक ओर निर्लज्ज स्वार्थ और भोग तथा दूसरी ओर अनासक्त धर्म-संस्थापना का प्रयत्न। दोनों पक्ष आमने-सामने हैं।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Antral : Mahasamar – 5
नरेन्द्र कोहली
इस खण्ड में, द्यूत में हारने के पश्चात पाण्डवों के वनवास की कथा है। कुन्ती, पाण्डु के साथ शत्- श्रृंग पर वनवास करने गयी थी। लाक्षागृह के जलने पर, वह अपने पुत्रों के साथ हिडिम्ब वन में भी रही थी। महाभारत की कथा के अन्तिम चरण में, उसने धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा विदुर के साथ भी वनवास किया था।…किन्तु अपने पुत्रों के विकट कष्ट के इन दिनों में वह उनके साथ वन में नहीं गयी। वह न द्वारका गयी, न भोजपुर। वह हस्तिनापुर में विदुर के घर रही। क्यों? पाण्डवों की पत्नियाँ देविका, बलंधरा, सुभद्रा, करेणुमती और विजया, अपने-अपने बच्चों के साथ अपने-अपने मायके चली गयीं; किन्तु द्रौपदी काम्पिल्य नहीं गयी। वह पाण्डवों के साथ वन में ही रही। क्यों? कृष्ण चाहते थे कि वे यादवों के बाहुबल से, दुर्योधन से पाण्डवों का राज्य छीनकर, पाण्डवों को लौटा दें, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। क्यों? सहसा ऐसा क्या हो गया कि बलराम के लिए धृतराष्ट्र तथा पाण्डव, एक समान प्रिय हो उठे, और दुर्योधन को यह अधिकार मिल गया कि वह कृष्ण से सैनिक सहायता माँग सके और कृष्ण उसे यह भी न कह सकें कि वे उसकी सहायता नहीं करेंगे? इतने शक्तिशाली सहायक होते हुए भी, युधिष्ठिर क्यों भयभीत थे? उन्होंने अर्जुन को किन अपेक्षाओं के साथ दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए भेजा था? अर्जुन क्या सचमुच स्वर्ग गये थे, जहाँ इस देह के साथ कोई नहीं जा सकता? क्या उन्हें साक्षात् महादेव के दर्शन हुए थे? अपनी पिछली यात्रा में तीन-तीन विवाह करनेवाले अर्जुन के साथ ऐसा क्या घटित हो गया कि उसने उर्वशी के काम-निवेदन का तिरस्कार कर दिया। इस प्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर निर्दोष तर्कों के आधार पर ‘अन्तराल’ में प्रस्तुत किये गये हैं। यादवों की राजनीति, पाण्डवों के धर्म के प्रति आग्रह, तथा दुर्योधन की मदान्धता सम्बन्धी यह रचना पाठक के सम्मुख, इस प्रख्यात कथा के अनेक नवीन आयाम उद्घाटित करती है। कथानक का ऐसा निर्माण, चरित्रों की ऐसी पहचान तथा भाषा का ऐसा प्रवाह -नरेन्द्र कोहली की लेखनी से ही सम्भव है।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Anushangik : Mahasamar – 9
Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीताAnushangik : Mahasamar – 9
नरेन्द्र कोहली
‘रजत संस्करण’ का यह नवम और विशेष खंड है। इसे ‘आनुषंगिक’ कहा गया, क्योंकि इसमें ‘महासमर’ की कथा नहीं, उस कथा को समझने के सूत्र हैं। हम इसे ‘महासमर’ का नेपथ्य भी कह सकते हैं। ‘महासमर’ लिखते हुए, लेखक के मन में कौन-कौन सी समस्याएँ और कौन-कौन से प्रश्न थे? किसी घटना अथवा चरित्र को वर्तमान रूप में प्रस्तुत करने का क्या कारण था? वस्तुतः यह लेखक की सृजनप्रक्रिया के गवाक्ष खोलने जैसा है। ‘महाभारत’ की मूल कथा के साथ-साथ लेखक के कृतित्व को समझने के लिए यह जानकारी भी आवश्यक है। यह सामग्री पहले ‘जहाँ है धर्म, वहीं है जय’ के रूप में प्रकाशित हुई थी। अनेक विद्वानों ने इसे ‘महासमर’ की भूमिका के विषय में देखा है। अतः इसे ‘महासमर’ के एक अंग के रूप में ही प्रकाशित किया जा रहा है। प्रश्न ‘महाभारत’ की प्रासंगिकता का भी है। अतः उक्त विषय पर लिखा गया यह निबंध, जो ओस्लो (नार्वे) में मार्च 2008 की एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया था, इस खंड में इस आशा से सम्मिलित कर दिया गया है, कि पाठक इसके माध्यम से ‘महासमर’ को ही नहीं ‘महाभारत’ को भी सघन रूप से ग्रहण कर पाएँगे। अंत में ‘महासमर’ के पात्रों का संक्षिप्त परिचय है। यह केवल उन पाठकों के लिए है, जो मूल ‘महाभारत’ के पात्रों से परिचित नहीं हैं। इसकी सार्थकता अभारतीय पाठकों के लिए भी है।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
Desh Ke Hit Mein
नरेन्द्र कोहली
‘‘सत्य महाराज।’’ ललित ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘किन्तुु क्या सरकार जानती है कि उसके जीवन के मूल में एक वोटर है और वह किसी भी दिन उसे छोड़ देगा; और सरकार के प्राण निकल जाएँगे।’’ ‘‘वोटर सरकार का शरीर बनाता है, सरकार की आत्मा तो उसका अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया कार्यालय-तंत्रा है। वह शाश्वत है। वोटर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’ ‘‘किन्तुु सरकार का शरीर भी तो मरेगा, उसकी पेंशन का क्या होगा?’’ ललित ने कहा। ‘‘मंत्रियों और सांसदों को पेंशन मिलेगी। उस पेंशन के अनेक रूप हैं, हरि के अनेक रूपों के समान। आप जैसे हरि को नहीं समझ सकते, वैसे ही सरकार को भी नहीं समझ सकते।’’ वे रुके, ‘‘अच्छा, अब इस चर्चा को छोड़िए और अपने जीवित होने के प्रमाण का नहीं, प्रमाणपत्रा का प्रबन्ध कीजिए।’’ आगन्तुकों को विदा कर ललित अपने मुहल्ले के पार्षद के पास पहुँचा, ‘‘देखिए, मैं जीवित हूँ।’’ ‘‘देख रहा हूँ।’’ ‘‘तो मुझे मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा दे दीजिए।’’ ‘‘आप जीवित हैं तो फिर प्रमाणपत्रा की क्या आवश्यकता है? आपका जीवन ही आपका सबसे बड़ा प्रमाण है।’’ ‘‘देखिए, हमारे देश में एक सरकार है। उसके कार्यालय में एक फाइल है। वह फाइल मुझे वेतन देती है। उस फाइल को मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा चाहिए, नहीं तो वह मेरा वेतन बन्द कर देगी। वह फाइल मुझे नहीं पहचानती, केवल प्रमाणपत्रा को पहचानती है। प्रमाणपत्रा के बिना तो स्वामी विवेकानन्द भी अमरीका में नहीं पहचाने गये थे।’’ ‘‘आप महान हैं; स्वामी विवेकानन्द के समान महान हैं। उनके पास भी प्रमाणपत्रा नहीं था और आपके पास भी नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘उन्हें प्रो. हेनरी जॉन राइट ने एक प्रमाणपत्रा दिया था। आप भी प्रो. हेनरी जॉन राइट के पास चले जाइए, वे आपको भी प्रमाणपत्रा दे देंगे। उनसे कम का कोई प्रमाणपत्रा आपको शोभा भी नहीं देता।’’ ‘‘पर हमारी सरकारी फाइलें क्या प्रो. हेनरी जॉन राइट को पहचान लेंगी?’’ ‘‘क्यों नहीं, हेनरी जॉन राइट पहले अपने जीवित होने का प्रमाणपत्रा प्रस्तुत करें।’’ और ललित प्रो. हेनरी जॉन राइट की खोज में निकल पड़ा… (पुस्तक अंश)
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Dharma : Mahasamar – 4
नरेन्द्र कोहली
‘महाभारत’ की कथा पर आधृत उपन्यास ‘महासमर’ का यह चौथा खण्ड है – ‘धर्म’! पाण्डवों को राज्य के रूप में खाण्डवप्रस्थ मिला है, जहाँ न कृषि है, न व्यापार। सम्पूर्ण क्षेत्र में अराजकता फैली हुई है। अपराधियों और महाशक्तियों की वाहिनियाँ अपने षड्यन्त्रों में लगी हुई हैं…और उनका कवच है खाण्डव-वन, जिसकी रक्षा स्वयं इन्द्र कर रहा है। युधिष्ठिर के सम्मुख धर्म-संकट है। वह नृशंस नहीं होना चाहता; किन्तु आनृशंसता से प्रजा की रक्षा नहीं हो सकती। पाण्डवों के पास इतने साधन भी नहीं हैं कि वे इन्द्र-रक्षित खाण्डव-वन को नष्ट कर, उसमें छिपे अपराधियों को दण्डित कर सकें। उधर अर्जुन के सम्मुख अपना धर्म-संकट है। उसे राज-धर्म का पालन करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ती है और बारह वर्षों का ब्रह्मचर्य पूर्ण वनवास स्वीकार करना पड़ता है। किन्तु इन्हीं बारह वर्षों में अर्जुन ने उलूपी, चित्रांगदा और सुभद्रा से विवाह किये। न उसने ब्रह्मचर्य का पालन किया, न वह पूर्णतः वनवासी ही रहा। क्या उसने अपने धर्म का निर्वाह किया? धर्म को कृष्ण से अधिक और कौन जानता है? …अर्जुन और कृष्ण ने अग्नि के साथ मिलकर, खाण्डव-वन को नष्ट कर डाला। क्या यह धर्म था? इस हिंसा की अनुमति युधिष्ठिर ने कैसे दे दी? और फिर राजसूय यज्ञ! क्या आवश्यकता थी, उस राजसूय यज्ञ की? जरासन्ध जैसा पराक्रमी राजा भीम के हाथों कैसे मारा गया; और उसका पुत्र क्यों खड़ा देखता रहा? अन्त में हस्तिनापुर में होने वाली द्यूत-सभा। धर्मराज होकर युधिष्ठिर ने द्यूत क्यों खेला? अपने भाइयों और पत्नी को द्यूत में हारकर किस धर्म का निर्वाह कर रहा था धर्मराज? द्रौपदी की रक्षा किसने की? कृष्ण उस सभा में किस रूप में उपस्थित थे? – ऐसे ही अनेक प्रश्नों के मध्य से होकर गुजरती है ‘धर्म’ की कथा। यह उपन्यास न केवल इन समस्याओं की गुत्थियाँ सुलझाता है बल्कि उस युग का, उस युग के चरित्रों का तथा उनके धर्म का विश्लेषण भी करता है। हम आश्वस्त हैं कि इस उपन्यास को पढ़कर ‘महाभारत’ ही नहीं, धर्म के प्रति भी आपका दृष्टिकोण कुछ अधिक विशद होकर रहेगा।…और फिर भी एक यह समकालीन मौलिक उपन्यास है, जिसमें आपके समसामयिक समाज की धड़कनें पूरी तरह से विद्यमान हैं।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Hidimba
उपन्यासकार यह बताना चाहता है कि महाभारत की कथा भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। यह मनुष्य के उस अनवरत युध्द की कथा है, जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरन्तर करना पड़ता है । इस संसार में चारों ओर लोभ, मोह, सत्ता और स्वार्थ की शक्तियाँ संघर्षरत हैं । लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुध्द मनुष्य के इस सात्विक युध्द को महाभारत में अत्यन्त विस्तार से प्रस्तुत किया गया है । ‘हिडिम्बा’ पाठकों के समक्ष प्रश्न उत्पन्न करती है कि हिडिम्बा कैसी पात्र है ? क्यों एक भाई के हत्यारे के साथ शादी करने को तैयार हो जाती है ? क्यों कुंती अपने बड़े बेटे के विवाह से पहले भीम के विवाह पर राजी हो जाती है । क्यों हिडिम्बा हस्तिनापुर न जाकर जंगल में रहना ही स्वीकार करती है ? इस उपन्यास में ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिससे पाठक रूबरू होंगे।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Karma : Mahasamar – 3
नरेन्द्र कोहली
महासमर-3 (कर्म) की कथा युधिष्ठिर के युवराज अभिषेक के पश्चात की कथा है। इस युवराज अभिषेक के पीछे मथुरा की यादव शक्ति है। अपनी राजनीति में उलझ जाने के कारण जब यादव पाण्डवों की सहायता नहीं कर पाते, दूसरी ओर गुरु द्रोण का वरदहस्त भी पाण्डवों के सिर से हट जाता है तो दुर्योधन पाण्डवों को वारणावत में भस्म करने का षड्यन्त्र रच डालता है। वारणावत से जीवित बच कर पाण्डव पांचालों की राजधानी काम्पिल्य में पहुँचते हैं। पाण्डवों का वारणावत से काम्पिल्य पहुँचाने की योजना इस कथा खण्ड का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उन्हें हिडिम्ब वन से किसने निकाला? उनके काम्पिल्य तक सुरक्षित पहुँचने की व्यवस्था किसने की? और उन्हें काम्पिल्य ही क्यों लाया गया? इस संदर्भ में विदुर, कृष्ण तथा महर्षि व्यास के नाम लिये जाते हैं। लेखक का विचार है कि इस संदर्भ में तीनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है। हमारे पाठक के मन में सदा से एक प्रश्न काँटे के समान चुभता रहा है कि एक स्त्री के पाँच पुरुषों के साथ विवाह कर दिये जाने के पीछे क्या तर्क था? उसका औचित्य क्या था? लेखक ने अपनी विशिष्ट, तथ्यपरक, तर्कसंगत शैली में इन प्रश्नों के समुचित उत्तर इस खण्ड में दिये हैं। पाण्डवों का हस्तिनापुर लौटना एक प्रकार का गृहआगमन भी है और मृत्यु के मुख में लौटना भी। किन्तु इस समय वे असहाय व भयभीत पाण्डव नहीं हैं और यादवों तथा पांचालों की सैन्य शक्ति उनके साथ है। यदि आज वे अपना अधिकार नहीं माँगेंगे तो कब माँगेंगे। पाण्डवों का सत्कार होता, किन्तु धृतराष्ट्र की योजना उन महावीर पाण्डवों को पुनः हस्तिनापुर से निष्कासित कर, खाण्डवप्रस्थ वन में फेंक देती है। भीष्म, विदुर, कृष्ण तथा व्यास के होते हुए भी पाण्डवों को हस्तिनापुर क्यों छोड़ना पड़ा?… ऐसे ही और सहज प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है यह उपन्यास।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Kunti
नरेन्द्र कोहली
वेद कहते हैं कि अनस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं होता। जो नहीं है, वह हो नहीं सकता। किसी का जन्म नहीं होता। कुछ उत्पन्न नहीं होता। स्रष्टा और सृष्टि दो समानान्तर रेखाएँ हैं, जिनका न कहीं आदि है न अन्त। वे दोनों रेखाएँ समानान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता है। जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता रहता है। वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं और उसके पश्चात् विनष्ट कर दिए जाते हैं। सूर्य चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम् अकल्पयत्। इस सूर्य और इस चन्द्रमा को भी पिछले चन्द्रमा के समान निर्मित किया गया।…तो यह जन्म लेने से पहले, इस शरीर को धारण करने से पहले भी तो कुन्ती कुछ रही होगी, कोई रही होगी। कौन थी वह ?…
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