NIRMAL VERMA BOOKS
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Aadi, Ant Aur Aarambha
अकसर कहा जाता है कि बीसवीं शती में जितनी बड़ी संख्या में लोगों को अपना देश, घर-बार छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना पड़ा, शायद किसी और शती में नहीं। किन्तु इससे बड़ी त्रासदी शायद यह है कि जब मनुष्य अपना घर छोड़े बिना निर्वासित हो जाता है, अपने ही घर में शरणार्थी की तरह रहने के लिए अभिशप्त हो जाता है। आधुनिक जीवन की सबसे भयानक, असहनीय और अक्षम्य देन ‘आत्म-उन्मूलन’ का बोध है। अजीब बात यह है कि यह चरमावस्था, जो अपने में काफी ‘एबनॉर्मल’ है, आज हम भारतीयों की सामान्य अवस्था बन गयी है। आत्म-उन्मूलन का त्रास अब ‘त्रास’ भी नहीं रहा, वह हमारे जीवन का अभ्यास बन चुका है। ऊपर की बीमारियाँ दिखाई देती हैं, किन्तु जो कीड़ा हमारे अस्तित्व की जड़ से चिपका है, जिससे समस्त व्याधियों का जन्म होता है- आत्म-शून्यता का अन्धकार- उसे शब्द देने के लिए हमें जब-तब किसी सर्जक-चिन्तक की आवश्यकता पड़ती रही है। हमारे समय के मूर्धन्य रचनाकार निर्मल वर्मा अकसर हर कठिन समय में एक सजग, अर्थवान् हस्तक्षेप करते रहे हैं। अलग-अलग अवसरों पर लिखे गये इस पुस्तक के अधिकांश निबन्ध- भले ही उनके विषय कुछ भी क्यों न हों- आत्म-उन्मूलन में इस ‘अन्धकार’ को चिद्दित करते रहे हैं। एक तरह से यह पुस्तक निर्मल वर्मा की सामाजिक-सांस्कृतिक चिन्ताओं का ऐतिहासिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करती है।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, उपन्यास
Antim Aranya
अन्तिम अरण्य यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है कि बाहर से एक कालक्रम में बँधा होने पर भी उपन्यास की अन्दरूनी संरचना उस कालक्रम से निरूपित नहीं है। अन्तिम अरण्य का उपन्यास-रूप न केवल काल से निरूपित है, बल्कि वह स्वयं काल को दिक् में-स्पेस में-रूपान्तरित करता है। उनका फॉर्म स्मृति में से अपना आकार ग्रहण करता है- उस स्मृति से जो किसी कालक्रम से बँधी नहीं है, जिसमें सभी कुछ एक साथ है -अज्ञेय से शब्द उधार लेकर कहें तो जिसमें सभी चीज़ो का ‘क्रमहीन सहवर्तित्व’ है। यह ‘क्रमहीन सहवर्तित्व’ क्या काल को दिक् में बदल देना नहीं है?… यह प्राचीन भारतीय कथाशैली का एक नया रूपान्तर है। लगभग हर अध्याय अपने में एक स्वतन्त्र कहानी पढ़ने का अनुभव देता है और साथ ही उपन्यास की अन्दरूनी संरचना में वह अपने से पूर्व के अध्याय से निकलता और आगामी अध्याय को अपने में से निकालता दिखाई देता है। एक ऐसी संरचना जहाँ प्रत्येक स्मृति अपने में स्वायत्त भी है और एक स्मृतिलोक का हिस्सा भी। यह रूपान्तर औपचारिक नहीं है और सीधे पहचान में नहीं आता क्योंकि यहाँ किसी प्राचीन युक्ति का दोहराव नहीं है। भारतीय कालबोध-सभी कालों और भुवनों की समवर्तिता के बोध-के पीछे की भावदृष्टि यहाँ सक्रिय है। -नन्दकिशोर आचार्य
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
AULESYA TATHA ANYA KAHANIYAN
अलेक्सांद्र कुप्रीन की ‘ओलेस्या तथा अन्य कहानियाँ’ पुस्तक की कथा जंगल में रहने वाली एक समाज-बहिष्कृत सुंदर लड़की और उसकी दादी की है,जिन्हें गाँव वाले डायनें समझते हैं। कथानक उस अल्प- परिचित, अलप-उद्घघाटित विषय का है, जिस पर आज भी बहुत कम सहीतियक रचनाएँ सारे यूरोप- अमेरिका में मिलती हैं। कुप्रीन, और चेखव की ही परंपरा में,रूसी साहित्य के उस स्वर्ण-काल के लेखक हैं जिनके पास समाज के हर तबके के पात्र के लिए के अचूक अंतर्दृष्टि थी।
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Vani Prakashan, उपन्यास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Bachpan
बचपन टॉलस्टॉय का आत्मकथात्मक लघु उपन्यास है, जो उन्होंने सन् 1852 में लगभग सत्ताईस वर्ष की अवस्था में लिखा था। एक दस वर्ष के बाल-नायक के ज़रिये इसमें न केवल उन्होंने बचपन के भोलेपन को, उसकी अविश्वसनीय सादगी की नाटकीयता को छुआ है, उन रहस्यों की ओर भी इशारा किया है, जो वय-संधि की देहरी पर खड़े हर बाल-मन को अपनी ओर बरबस खींचते हैं। बचपन का यह परिवेश इसलिए भी अलौकिक है कि इसे टॉलस्टॉय जैसे मर्मज्ञ ने छुआ है। सन् 1955 के आसपास इसका अनुवाद निर्मल वर्मा ने किया था, छद्म नाम से, अपने मित्र जगदीश स्वामीनाथन के लिए, जो उन दिनों पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में काम करते थे। यह राज़ निर्मल जी ने स्वयं ही अपने मित्रों को बताया था।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां
Beech Bahas Mein
निर्मल वर्मा की करुणा आत्मदया नहीं है, यह एक समझदार और वयस्क करुणा है। यह करुणा जीवन में विसंगतियों को देखती है और उन्हें समझती है, गोकि कुछ करती नहीं। निर्मल वर्मा की कहानियों के पात्र एक-दूसरे को भीतर से समझते हैं, इसलिए उनमें आपस में कोई विरोध या संघर्ष नहीं है, वे एक-दूसरे को काटते नहीं, एक-दूसरे के अस्तित्व की प्रतिज्ञाओं को तोड़ते नहीं। एक अर्थ में वे यथास्थितिवादी हैं। वे अपने केन्द्र पर अपनी अनुभूति की पूरी सजीवता से डोलते हुए सिर्फ स्थिर रहना चाहते हैं, न अपने आपको, न अपने परिवेश को और न इन दोनों के सम्बन्ध को ही बदलना चाहते हैं। -मलयज बीच बहस में एक मौत हुई थी। लगा था कि दिवंगत के साथ ही उसके साथ होने वाली बहस भी समाप्त हो गयी। पर बहस समाप्त हुई नहीं। हो भी कैसे? बहस केवल उससे तो थी नहीं, जो चला गया। वह तो अपने आप से है, उनसे है जो बच रहे हैं। और जो मौत भी हुई है, वह कोई टोटल, सम्पूर्ण मौत तो है नहीं। क्यों कोई मौत टोटल होती है? -सुधीर चंद्र
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, इतिहास, कहानियां
Bharat Aur Europe : Pratishruti Ke Kshetra
पिछले वर्षों में यदि निर्मल वर्मा का कोई एक निबन्ध सबसे अधिक चर्चित और ख्यातिप्राप्त रहा है, तो वह भारत और यूरोप है, जो उन्होंने हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी में प्रस्तुत किया था। भारत और यूरोप महज दो इकाइयाँ न होकर दो ध्रुवान्त सभ्यताओं का प्रतीक रहे हैं…एक-दूसरे से जुड़कर भी दो अलग-अलग वास्तविकताएँ। पश्चिम से सर्वथा विपरीत भारतीय परम्परा में प्रकृति, कला और दुनिया के यथार्थ के बीच का सम्बन्ध हमेशा से ही पवित्र माना जाता रहा है। उसमें एक प्रकार की ईश्वरीय दिव्यता आलोकित होती है… शिव के चेहरे की तरह कला जीवन को परिभाषित नहीं करती, बल्कि स्वयं कलाकृति में ही जीवन परिभाषित होता दीखता है।’ भारत और यूरोप के लिए निर्मल वर्मा को 1997 में भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। परम पावन दलाई लामा से पुरस्कार स्वीकार करते समय निर्मल वर्मा ने कहा कि उन्हें इस बात की प्रसन्नता है कि यह पुरस्कार उनके निबन्धों की पस्तक पर है। ‘ये निबन्ध मेरे उन अकेले वर्षों के साक्षी हैं जब मैं…अपने साहित्यिक समाज की पर्वनिर्धारित धारणाओं से अपने को असहमत और अलग पाता था…मैं अपने निबन्धों और कहानियों में किसी तरह की फाँक नहीं देखता। दोनों की तष्णाएं भले ही अलग-अलग हों, शब्दों के जिस जलाशय से वे अपनी प्यास बुझाते हैं, पर एक ही है। निबन्ध मेरी कहानियों के हाशिए पर नहीं, उनके भीतर के रिक्त-स्थानों को भरते हैं, जहाँ मेरी आकांक्षाएँ सोती हैं….
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Cheeron Par Chandani
निर्मल वर्मा के गद्य में कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्त और डायरी की समस्त विधाएँ अपना अलगाव छोड़कर अपनी चिन्तन-क्षमता और सृजन-प्रक्रिया में समरस हो जाती हैं…आधुनिक समाज में गद्य से जो विविध अपेक्षाएँ की जाती हैं, वे यहाँ सब एकबारगी पूरी हो जाती हैं। -डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी / निर्मल वर्मा के यहाँ संसार का आशय सम्बन्धों की छाया या प्रकाश में ही खुलता है, अन्यथा नहीं। सम्बन्धों के प्रति यह उद्दीप्त संवेदनशीलता उन्हें अनेक अप्रत्याशित सूक्ष्मताओं में भले ले जाती हो, उनको ऐसा चिन्तक-कथाकार नहीं बनाती जिसका चिन्तन अलग से हस्तक्षेप करता चलता हो। वे अर्थों के बखान के नहीं, अर्थों की गूंजों और अनुगूगूँजों के कथाकार हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Chitthiyon Ke Din
निर्मल वर्मा जितना मौन पसन्द थे, उतना ही संवाद-प्रिय- इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं, विशेषकर उनके पत्रों की इस तीसरी पुस्तक के अवसर पर। एक आत्मीय स्पेस में लिखे गये ये पत्र अलग-अलग व्यक्तियों को लिखे जाने के बावजूद पारिवारिक ऊष्मा लिये हुए हैं। निस्संग रहते हुए भी निर्मल कितना दूसरों के संग थे, उनकी व्यावहारिक परिस्थितियों से लेकर उनकी सर्जनात्मक आकुलता तक, ये पत्र इसके साक्षी हैं। अधिकतर ये पत्र, विशेषकर रमेशचन्द्र शाह और ज्योत्स्ना मिलन के नाम, सन् अस्सी के दशक में लिखे गये पत्र हैं। यह वह दूसरी दुनिया थी, जो देखने पर बाहर से दिखायी नहीं देती। इसमें उनका अकेलापन था और अपनी व्यक्तिगत लेखकीय नियति का सामना करने की तैयारी। निर्मल वर्मा आज यदि अलग दिखते हैं, तो अपने जीने या सहने में नहीं। इस सब जंजाल के जो अर्थ वह अपने लेखन से दे पाये उसमें। दूसरों से संवाद में ही जीवन का यह अति-यथार्थ सँभल पाता है, सहनीय हो पाता है ये पत्र इसका दस्तावेज़ है। निर्मल वर्मा के शोधार्थियों और पाठकों को इन पत्रों में उनके रचना-संसार के कई नये अन्तःसूत्र मिलेंगे, ऐसा निश्चित है।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dhalaan Se Utarte Hue
कला सिखाती नहीं, ‘जगाती’ है। क्योंकि उसके पास ‘परम सत्य’ की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके. …तब क्या कला नैतिकता से परे है? हाँ, उतना ही परे जितना मुनष्य का जीवन व्यवस्था से परे। यहीं कला की ‘नैतिकता’ शुरू होती है… कोई अनुभव झूठा नहीं, क्योंकि हर अनुभव अद्वितीय है….झूठ तब उत्पन्न होता है, जब हम किसी ‘मर्यादा’ को बचाने के लिए अपने अनुभव को झुठलाने लगते हैं। सीता के अनुभव के सामने राम की मर्यादा कितनी पंगु और प्राणहीन जान पड़ती है… इसलिए नहीं कि उस मर्यादा में कोई खोट या झूठ है, बल्कि इसलिए कि राम अपनी मर्यादा बचाने के लिए अपनी चेतना को झुठलाने लगते हैं… जब हम कोई महान उपन्यास या कविता पढ़ते हैं, किसी संगीत-रचना को सुनते हैं, किसी मूर्ति या पेंटिंग को देखते हैं तो वह उन सब अनुभवों की याद दिलाती है, जो न सिर्फ़ हमें दूसरी कलाकृतियों से प्राप्त हुए हैं, बल्कि जो कला के बाहर हमारे समूचे अनुभव-संसार को झिंझोड़ जाता है…वह एक टूरिस्ट का निष्क्रिय अनुभव नहीं, जिसे वह अपनी नोटबुक में दर्ज करता है…वह हमें विवश करता है कि उस कलाकृति के आलोक में अपने समस्त अनुभव-सत्यों की मर्यादा का पुनर्मूल्यांकन कर सकें… -निर्मल वर्मा निर्मल वर्मा के निबन्धों की सार्थकता इस बात में है कि वे सत्य को पाने की सम्भावनाओं के नष्ट होने के कारणों का विश्लेषण करते हुए उन्हें पुनः मूर्त करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। निर्मल वर्मा लिखते हैं कि समय की उस फुसफुसाहट को हम अक्सर अनसुनी कर देते हैं, जिसमें वह अपनी हिचकिचाहट और संशय को अभिव्यक्त करता है क्योंकि वह फुसफुसाहट इतिहास के जयघोष में डूब जाती है-निर्मल वर्मा के ये निबन्ध इतिहास के जयघोष के बरअक्स समय की इस फुसफुसाहट को सुनने की कोशिश हैं। -नन्दकिशोर आचार्य
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dhundh Se Uthati Dhun
‘धुन्ध से उठती धुन’ एक ऐसे ही ‘समग्र, समरसी गद्य’ का जीवन्त दस्तावेज़ है, निर्मल वर्मा के ‘मन की अन्तःप्रक्रियाओं’ का चलता-फिरता रिपोर्ताज, जिसमें पिछले वर्षों के दौरान लिखी डायरियों के अंश, यात्रा-वृत्त, पढ़ी हुई पुस्तकों की स्मृतियाँ और स्मृति की खिड़की से देखी दुनिया एक साथ पुनर्जीवित हो उठते हैं। एक तरफ़ जहाँ यह पुस्तक उस ‘धुन्ध’ को भेदने का प्रयास है, जो निर्मल वर्मा की कहानियों के बाहर छाई रहती है, वहीं दूसरी तरफ़ यह उस ‘धुन’ को पकड़ने की कोशिश है, जो उनके गद्य के भीतर एक अन्तर्निहित लय की तरह प्रवाहित होती है।/
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dusri Duniya
बोलना, निर्मल वर्मा के वहाँ कथन (स्टेटमेंट) नहीं है। वक्ता का ज़ोर बावजूद इसके कि उसमें ‘सच’ और ‘झूठ’ और ‘पाप’ जैसे मूल्याविष्ट प्रत्यय बार-बार आते हैं, बोले हुए की ‘टुथ-वैल्यू’ पर उतना नहीं, जितना खुद को ‘उच्चरित’ करने पर है…दरअसल उनके पात्र भाषा से तदात्म हस्तियाँ हैं। भाषा के जल में उठती हुई लहरें। भाषा में उत्पन्न नये अर्थ…वे साँचे हैं जो अब नहीं हैं लेकिन जिनके कभी होने का पता हमें उस भाषा से चलता है जो इन साँचों में ढली है, जो हमारे सामने है…यह भाषा अपने ‘टैक्सचर’ की पर्याप्त प्रांजलता के बावजूद अपने ‘स्ट्रक्चर’ में अत्यन्त अर्थगर्भी और जटिल है: लगभग एक कूट की भाँति… निर्मल वर्मा का हर पात्र कथा के एकान्त में एक ‘देह’ है: एक गुप्तचर की तरह अपने कोड (केट) में विचित्र सन्देश देती हुई; ‘अपने अतीत, अपनी यातनाओं के बारे में’ निर्मल वर्मा स्वयं किसी तरह की तर्कणा या परिपृच्छा से उसे पुकार कर या झिंझोड़ कर उसका एकान्त भंग नहीं करते। वे इस कूटबद्ध देह (वाक्य) के लिए एक अवकाश रचते हैं अपनी कथा के माध्यम से; ऐसा ‘घना सन्नाटा’ जहाँ इस देह के ‘विचित्र सन्देश’ ग्रहण किए जा सकें, जहाँ उसकी ‘गुप्त गवाही का गवाह’ हुआ जा सके…उनके यहाँ मनुष्य का सत्व भाषा में रूपायित है। – मदन सोनी
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Vani Prakashan, उपन्यास, कहानियां
Ek Chithda Sukh
तुमने कभी उसे देखा है? -किसे? -दुख को…मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहाँ आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहाँ आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है! निर्मल वर्मा ने इस उपन्यास में ‘दुख का मन’ परखना चाहा है- ऐसा दुख, जो ज़िन्दगी के चमत्कार और मृत्यु के रहस्य को उघाड़ता है…मध्यवर्गीय जीवन-स्थितियों के बीच उन्होंने बिट्टी, इरा, नित्ती भाई और डैरी के रूप में ऐसे पात्रों का सृजन किया है, जो अपनी-अपनी ज़िन्दगी के मर्मान्तक सूनेपन में जीते हुए पाठक की चेतना को बहुत गहरे तक झकझोरते हैं। पारस्परिक सम्बन्धों के बावजूद सबकी अपनी-अपनी दूरियाँ हैं, जिन्हें निर्मल वर्मा की क़लम के कलात्मक रचाव ने दिल्ली के पथ-चौराहों समेत प्रस्तुत किया है। शीर्षस्थ कथाकार निर्मल वर्मा की अविस्मरणीय कृति, जो रचनात्मक स्तर पर स्थूल यथार्थ की सीमाओं का अतिक्रमण करके जीवन-सत्य की नयी सम्भावनाओं को उजागर करती है।
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Vani Prakashan, उपन्यास, कहानियां
EMOKE : EK GATHA
एमेके: एक गाथा चेकोस्लोवाकिया के सर्वाधिक विवादास्पद लेखक जोसेफ़ श्कवोरस्की का विश्व-विख्यात उपन्यास है, जिस पर 1998 में एक टेलिविजन फ़िल्म भी बन चुकी है। उपन्यास के केंद्र में छुट्टी मनाने गये कुछ पर्यटकों की दास्तान है। एमेके एक आकर्षक जिप्सी युवती, जिसका ध्यान सब अपनी ओर खींचना चाहते हैं, लेकिन वह दूसरी दुनिया की, अध्यात्म की बातें करती रहती है। धीरे-धीरे एक मीठा-सा त्रिकोण बनना शुरू होता है कि तभी एक व्यक्ति की शत्रुता से सब तहस-नहस हो जाता है। कहानी मीठे त्रिकोण से मीठे प्रतिशोध का फ़ासला बड़ी सुंदरता से तय करती है। आश्चर्य नहीं कि इस उपन्यास के विश्व की बीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। हिन्दी में इसका निर्मल वर्मा द्वारा अनुवाद पहली बार सन् 1973 में प्रकाशित हुआ था।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Har Barish Mein
हिन्दी साहित्य के इतिहास में साठ का दशक, निर्मल वर्मा, चेकोस्लोवाकिया और यूरोप- लगभग अभिन्न हो गये हैं। इस दौरान निर्मल वर्मा ने यूरोप की धड़कन, उसके गौरव और शर्म के क्षणों को बहुत नजदीक से देखा-सुना। इस लिहाज से यह पुस्तक एक ऐसी नियतिपूर्ण घड़ी का दस्तावेज है, जब बीसवीं शती के अनेक काले-उजले पन्ने पहली बार खुले थे। दुब्चेक काल का प्राग-वसन्त, सोवियत-स्वप्न का मोह-भंग, पेरिस के बेरिकेडों पर उगती आकांक्षाएँ- ऐसी अभूतपूर्व घटनाएँ थीं, जिन्हें हमारी ढलती शताब्दी की छाया में निर्मल वर्मा ने पकड़ने की कोशिश की, किसी बने-बनाये आईने के माध्यम से नहीं बल्कि सम्पूर्णतया अपनी नंगी आँखों के सहारे। यह पुस्तक एक बहस की शुरुआत थी- वामपन्थी विचारधारा को प्रश्नांकित करने की शुरुआत। इस पुस्तक में युवा चिन्तक निर्मल वर्मा पहली बार ‘अलोकप्रिय’ होने के खतरे उठाते दिखाई दिये थे- लेकिन इसके बाद फिर कभी किसी ने उन पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह ‘किसी भी बारिश’ में भीगने से कतराये थे।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
ITIHAAS SMRITI AKANKSHA
इतिहास, स्मृति, आकांक्षा निर्मल वर्मा का चिन्तक पक्ष उभारती है। क्या मनुष्य इतिहास के बाहर किसी और समय में रह सकता है? रहना भी चाहे तो क्या वह स्वतन्त्र है? स्वतन्त्र हो तो भी क्या यह वांछनीय होगा? क्या यह मनुष्य की उस छवि और अवधारणा का ही अन्त नहीं होगा, जिसे वह इतिहास के चौखटे में जड़ता आया है? इतिहास बोध क्या है? क्या वह प्रकृति की काल चेतना को खण्डित करके ही पाया जा सकता है? लेकिन उस काल चेतना से स्खलित होकर मनुष्य क्या अपनी नियति का निर्माता हो सकता है? जिसे हम मनुष्य की चेतना का विकास कहते हैं, वहीं से मनुष्य की आत्म विस्मृति का अन्धकार भी शुरू होता है। यदि मनुष्य की पहचान उस क्षण से होती है जब उसने प्रकृति के काल बोध को खण्डित करते हुए इतिहास में अपनी जगह बनायी थी तो क्या उस प्रकृति के नियमों को नहीं माना जा सकता जिसका काल बोध अब भी उसके भीतर है।…आज जब ऐतिहासिक विचारधाराओं के संकट पर सब ओर इतना गहन और मूल स्तर पर पुनर्परीक्षण हो रहा है तब निर्मल वर्मा के यह व्याख्यान एक अतिरिक्त महत्त्व और प्रासंगिकता लेकर सामने आते हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथा साहित्य, कहानियां
Jalti Jhadi
जलती झाड़ी निर्मल वर्मा की कहानियाँ हमारे भीतर खुलती हैं। ये कैसे खुलती हैं भीतर? शायद इस तरह कि वे हमें भीतर जाने को कहती हैं। हम बहुत भीतर, अपने जिस मन को जानते हैं, वह दुख का मन है। सुख को सपने की तरह जानता हुआ-दुख का मन। निर्मल वर्मा की कहानियों में यह दुख है। एक वयस्क आदमी का दुख और उसका अकेलापन । ऐसा बीहड़ अकेलापन, जिसमें लोगों के साथ होने, उनका बने रहने तक की, व्याकुल इच्छाएँ हैं, लेकिन उन इच्छाओं को लीलता हुआ अकेलापन है, एक व्यक्ति का अकेलापन। बेशक इस व्यक्ति का वर्ग भी है लेकिन अनुभव एक विशेष व्यक्ति का है, वर्ग को धारण करनेवाले किसी साहित्यिक सूत्र का नहीं। यह सच्चा और खरा दुख ही है, जो निर्मल वर्मा की कहानियों के संसार का मानवीकरण करता है। उन्हें हमसे जोड़ता है। और हम उन कहानियों को पढ़कर जानते-भर नहीं हैं। उनके साथ होते हैं। निर्मल वर्मा से जुड़ते हैं। -प्रभात त्रिपाठी
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
JHONPADI WALE AUR ANYA KAHANIYAN
प्रमुख रोमानियाई कथाकार मिहाइल सादौवेन्यू द्वारा लिखित झोंपड़ी वाले तथा अन्य कहानियाँ बीसवीं सदी के आरंभ के रोमानियाई ग्रामीणों के जीवन पर आधारित है। इनमें यूरोप की उत्कट गरीबी का चित्रण है और ग्रामीणों के भोले-भाले स्वभाव का। कल-कारखानों के आने से पहले साधारण मनुष्य का जीवन भले कठिन था लेकिन कितना कलुष-रहित, इसका सटीक अंकन इन कथाओं में है। निर्मल वर्मा ने प्राग में रहते हुए इन रोमानियाई कहानियों का अनुवाद किया था। पहली बार ये साहित्य अकादमी के प्रकाशन से सन् 1966 में सामने आईं थीं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां
Kala Ka Jokhim
निर्मल वर्मा के निबन्ध-संग्रहों के सिलसिले में कला का जोखिम उनकी दूसरी पुस्तक है, जिसका पहला संस्करण लगभग बीस साल पहले आया था। स्वयं निर्मलजी इस पुस्तक को अपने पहले निबन्ध-संग्रह शब्द और स्मृति तथा बाद वाले ढलान से उतरते हुए शीर्षक संग्रह के बीच की कड़ी मानते हैं जो इन दोनों पुस्तकों में व्यक्त चिन्ताओं को आपस में जोड़ती है। निर्मल वर्मा के चिन्तक का मूल सरोकार ‘आधुनिक सभ्यता में कला के स्थान’ को लेकर रहा है। मूल्यों के स्तर पर कला, सभ्यता के यांत्रिक विकास में मनुष्य को साबुत, सजीव और संघर्षशील बनाये रखनेवाली भावात्मक ऊर्जा है, किन्तु इस युग का विशिष्ट अभिशाप यह है कि जहाँ कला एक तरफ मनुष्य के कार्य-कलाप से विलगित हो गयी, वहाँ दूसरी तरफ वह एक स्वायत्त सत्ता भी नहीं बन सकी है, जो स्वयं मनुष्य की खण्डित अवस्था को अपनी स्वतन्त्रा गरिमा से अनुप्राणित कर सके। साहित्य और विविध देश-कालगत सन्दर्भों से जुडे़ ये निबन्ध लेखक की इसी मूल पीड़ा से हमें अवगत कराते हैं। अपनी ही फेंकी हुई कमन्दों में जकड़ी जा रही सभ्यता में कला की स्वायत्तता का प्रश्न ही ‘कला का जोखिम’ है और साथ ही ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि ‘वही आज रचनात्मक क्रान्ति की मूल चिन्ता का विषय’ बन गया है। इन निबन्धों के रूप में इस चिन्ता से जुड़ने का अर्थ एक विधेय सोच से जुड़ना है और कला एक ज़्यादा स्वाधीन इकाई के रूप में प्रतिष्ठित हो सके, उसके लिए पर्याप्त ताकत जुटाना भी।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां
Kavve Aur Kala Pani
निर्मल वर्मा के भाव-बोध में एक खुलापन निश्चय ही है-न केवल ‘रिश्तों की लहूलुहान पीड़ा’ के प्रति, बल्कि मनुष्य के उस अनुभव और उस वृत्ति के प्रति भी, जो उसे ‘ज़िन्दगी’ के मतलब की खोज’ में प्रवृत्त करती है। उनके जीवन-बोध में दोनों स्थितियों और वृत्तियों के लिए गुंजाइश निकल आती है और यह ‘रिश्तों की उस लहूलुहान पीड़ा’ के एकाग्र अनुभव और आकलन का अनिवार्य प्रतिफलन है…तब इन कहानियों का अनिवार्य सम्बन्ध न केवल मानव-व्यक्तियों की मूलभूत आस्तित्विक वेदनाओं से हमें दिखाई देने लगता है, बल्कि हमारे अपने समाज और परिवेश के सत्य की- हमारे मध्यवर्गीय जीवनानुभव के दुरतिक्राम्य तथ्यों की भी गूँज उनमें सुनाई देने लगती है। बाँझ दुख की यह सत्ता, अकेली आकृतियों का यह जीवन-मरण हमें तब न विजातीय लगता है, न व्यक्तिवादी पलायन, न कलावादी जीवनद्रोह। -रमेशचंद्र शाह
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KHEL-KHEL MEIN
अनुवादक – निर्मल वर्मा तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी ‘प्राग’ अर्थात् देहरी। एक तरह से प्राग नगर यूरोप का प्रयाग रहा है- पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक धाराओं का पवित्र संगम-स्थल। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में वह यहूदी विद्वानों, जर्मन लेखकों और रूसी क्रान्तिकारियों का शरण-स्थल रह चुका है। उन दिनों उसमें शायद पेरिस या वियेना या बर्लिन की चकाचौंध नहीं थी, लेकिन एक अनूठी गरिमा और संवेदनशीलता अवश्य थी, जिसने वहाँ बसने वाले जर्मन और यहूदी लेखकों की मनीषा को एक बिरले रंग और लय में ढाला था। आज भी बीसवीं शती के जर्मन और यहूदी साहित्य को प्राग से अलग करके देख पाना असम्भव लगता है। इसी प्राग नगर में साठ के दशक में हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार श्री निर्मल वर्मा ने अपने युवा वर्ष गुजारे थे। उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओरिएंटल स्टडीज़ के निमन्त्रण पर वहाँ रह कर न केवल चेक भाषा सीखी, बल्कि तत्कालीन चेक साहित्य से हिन्दी जगत को सीधे परिचित करवाया। हिन्दी पाठकों के लिए यह दिलचस्प तथ्य होगा कि चेक साहित्य के गणमान्य मूर्धन्य लेखकों- कारेल चापेक, बोहुमिल हराबाल- के अलावा तब के युवा लेखकों, मिलान कुन्देरा और जोसेफ़ श्कवोरस्की की रचनाएँ हिन्दी में उस समय आयीं जब यूरोप में वे अभी अल्पज्ञात थे। यही इस संग्रह की ऐतिहासिक भूमिका है। प्रस्तुत कहानियाँ इससे पहले ‘इतने बड़े धब्बे’ नाम से 1966 में संकलित हो चुकी हैं।
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Vani Prakashan, उपन्यास, कहानियां
Lal Teen Ki Chhat
हिन्दी कहानी को निर्विवाद रूप से एक नयी कथा-भाषा प्रदान करने वाले अग्रणी कथाकार निर्मल वर्मा की साहित्यिक संवेदना एक ‘जादुई लालटेन’ की तरह पाठकों के मानस पर प्रभाव डालती है। प्रायः सभी आलोचक इस बात पर एकमत हैं कि समकालीन कथा-साहित्य को उन्होंने एक निर्णायक मोड़ दिया। ‘लाल टीन की छत’ उनकी सृजनात्मक यात्रा का एक प्रस्थान बिन्दु है जिसे उन्होंने उम्र के एक ख़ास समय पर फोकस किया है। ‘बचपन के अन्तिम कगार से किशोरावस्था के रूखे पाट पर बहता हुआ समय, जहाँ पहाड़ों के अलावा कुछ भी स्थित नहीं है।’
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां
Parinde
निर्मल वर्मा की कहानियों के प्रभाव के पीछे जीवन की गहरी समझ और कला का कठोर अनुशासन है। बारीकियाँ दिखाई नहीं पड़ती हैं तो प्रभाव की तीव्रता के कारण अथवा कला के सघन रचाव के कारण। एक बार दिशा-संकेत मिल जाने पर निरर्थक प्रतीत होने वाली छोटी-छोटी बातें भी सार्थक हो उठती हैं, चाहे कहानी हो चाहे जीवन। कठिनाई यह है कि दिशा-संकेत निर्मल की कहानी में बड़ी सहजता से आता है और प्रायः ऐसी अप्रत्याशित जगह जहाँ देखने के हम अभ्यस्त नहीं। क्या जीवन में भी सत्य इसी प्रकार अप्रत्याशित रूप से यहीं कहीं साधारण से स्थल में निहित नहीं होता? निर्मल ने स्थूल यथार्थ की सीमा पार करने की कोशिश की है। उन्होंने तात्कालिक वर्तमान का अतिक्रमण करना चाहा है, उन्होंने प्रचलित कहानी-कला के दायरे से बाहर निकलने की कोशिश की है, यहाँ तक कि शब्द की अभेद्य दीवार को लाँघकर शब्द के पहले के ‘मौन जगत्’ में प्रवेश करने का भी प्रयत्न किया है और वहाँ जाकर प्रत्यक्ष इन्द्रिय-बोध के द्वारा वस्तुओं के मूल रूप से पकड़ने का साहस दिखलाया है।
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