Rajasthani Granthagar
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
18vi Shatabdi mein Rajasthan ka Samajik evam Aarthik Jivan
-10%Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास18vi Shatabdi mein Rajasthan ka Samajik evam Aarthik Jivan
18वीं शताब्दी में राजस्थान का सामाजिक एवं आर्थिक जीवन (मारवाड़ के संदर्भ में) : प्रस्तुत पुस्तक के लेखन हेतु पुरालेखीय सामग्री मारवाड़ की ख्यातों, विगत व तवारीखों के साथ ही मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र में संग्रहित दस्तूर बहियों, विवाह बहियों, जवाहरखाना की बहियों, मिन्ट की बहियों, कपड़ों के कोठार की बहियों, सनद परवाना बहियों, हकीकत बहियों, हथ बहियों, औहदा बहियों आदि का उपयोग किया गया है। साथ ही अजितोदय’, ‘अजीतचरित्र’, ‘महाराजा अजीतसिंह जी री दवावैत’, अजीतविलास’, ‘अभयविलास’, ‘सूरजप्रकाश’, ‘राजरूपक’, ‘मुंदियाड़ री ख्यात’, ‘मारवाड़ री ख्यात’, ‘बांकीदास री ख्यात’ आदि समकालीन ग्रंथों का भी अध्ययन किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक की सामग्री विषयानुसार आठ प्रकरणों में प्रस्तावित है। सामाजिक जीवन के अध्ययन के पूर्व मारवाड़ के भौगोलिक पर्यावरण, तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों, मारवाड़ में मराठों के प्रवेश व प्रभाव तथा सामन्त व्यवस्था के स्वरूप पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार आलोच्यकालीन मारवाड़ के प्रारंभिक काल में महाराजा अजीतसिंहजी व उनके स्वामीभक्त राठौड़ों के निरन्तर संघर्ष के पश्चात् भी धर्मान्ध औरंगजेब ने महाराजा अजीतसिंहजी का मारवाड़ पर आधिपत्य स्वीकार नहीं किया। अन्ततः औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् ही अजीतसिंह को मारवाड़ की सत्ता प्राप्त हुई। पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर मराठों ने उत्तर भारत में प्रसार की नीति अपनाई। इस नीति के अन्तर्गत राजपूताना की अन्य रियासतों के साथ ही मारवाड़ भी सम्मिलित था। इस बिन्दु में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार मराठों की धनलोलुपता ने मारवाड़ को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया। साथ ही राजा व सामन्तों में परस्पर सहयोग की उपयोगी अवधारणा ‘सामन्त व्यवस्था’ पर प्रकाश डाला गया है कि किस प्रकार प्रारंभिक काल के आज्ञानुकारी व स्वामिभक्त सामन्तों के वंशज कालान्तर में निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग अपने स्वामी की शक्ति को कमजोर करने में करने लगे। मारवाड़ एक धर्मप्राण प्रदेश रहा है। यहाँ धार्मिक जीवन धर्म के विभिन्न मतों शैव, शाक्त व वैष्णव मत के रूप में प्राणवान् रहा है। जैन व इस्लाम धर्म के अनुयायी भी अपने-अपने धर्मों में निर्बाध निरत थे। रामस्नेही, नाथ, साध, निम्बार्क, वल्लभ, विश्नोई, दादूपंथ, कबीर पंथ इत्यादि विभिन्न सम्प्रदायों के प्रणेताओं तथा विचारकों ने भी ईश्वर प्राप्ति के आडम्बरहीन सुगम मार्ग को बताकर जनता को प्रभावित व प्रेरित किया। साथ ही लोकमानस पर लोकदेवताओं के प्रभाव को रेखांकित किया है। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में व्यक्तित्व के उत्थान के निमित्त संयोजित संस्कारों का अध्ययनकालीन मारवाड़ में क्या स्वरूप था तथा उनकी अनुपालना किस प्रकार रीति रस्मों व हर्षोल्लास द्वारा सम्पादित होती थी, इसका अध्ययन किया गया है। इसके साथ-साथ इस तथ्य को भी विवेचित किया गया है कि = तत्कालीन समय में शिक्षा व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के निमित्त थी तथा नैतिक जीवन के आदर्श के रूप में शिक्षा का महत्व था। शिक्षा हेतु प्रथम और महत्वपूर्ण संस्था परिवार ही होता था। इसी परिवार संस्था एवं उसके परम्परागत स्वरूप संयुक्त परिवार प्रथा पर प्रकाश डाला गया है। परिवार में सभी सदस्यों की छोटे-बड़े व स्त्री-पुरुष के अनुसार एक विशेष स्थिति होती थी। इसका अध्ययन महिलाओं के विशेष सन्दर्भ में किया गया है। स्त्री जीवन से जुड़ी पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बहुविवाह, दास प्रथा, दहेज प्रथा, वैधव्य, उपपत्नियाँ आदि विभिन्न कुप्रथाओं के साथ ही साथ स्त्री के सम्पत्ति अधिकार, नारी शिक्षा, उसके द्वारा निर्माण कार्य आदि विविध आयामों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। जीवन के भौतिक तथा सांस्कृतिक पक्ष खानपान, वस्त्राभूषण, सौन्दर्य प्रसाधन, शृंगार, त्योहार, मेले एवं मनोरंजन के साधनों का महत्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।SKU: n/a -
Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Aadhunik Bharat ka Itihas
आधुनिक भारत का इतिहास (1740 ई. से 1950 ई. तक) : आधुनिक भारत का इतिहास, अत्यंत रोचक, पठनीय एवं प्रेरणादायक हैं। यह इतिहास उस समय से आरम्भ होता है, जब मुगलों का समस्त वैभव धूल-धूसरित होकर केवल लाल किले तक सीमित रह जाता है और मराठों के हाथों की कठपुतली बनकर अंतिम सांसें गिनने लगता है। इस युग में होने वाले अफगान आक्रमणों के हाथों, मराठों की भी कमर टूट जाती है और वे बिखरने लगते हैं। इस काल में पूरा देश हिन्दुओं, मराठों और मुस्लिम रियासतों में विभक्त होकर एक दूसरे के विनाश के लिये भयानक रक्तपात करता हुआ दिखाई देता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत की इस दुर्दशा का लाभ उठाती है और तेजी से पसरती हुईं पहले मद्रास, फिर बंगाल और इलाहबाद और अंत में दिल्ली तक जा पहुंचती है। 1857ई. में भारत अपनी खोई हुई स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयास करता है किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश ताज के अधीन हो जाता है। लगभग तीन दशकों बाद ही भारत अपनी मुक्ति के लिये पुनः आंदोलन करता है। यह आंदोलन 1947ई. में तब तक चलता रहता है, जब तक कि भारत दासता की बेड़ियां पूरी तरह काट नहीं डालता। इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित यह इतिहास भारत के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर लिखा गया है।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Aas Na Aangane
आस ना आँगणै
अक’ज तारो आसरौ, ओक’ज तारी वात। मात सरसती राखजे, म्हारै माथै हाथ।।
accordingly वागड़ी मंय म्हारी पेहली चोपड़ी “आस ना आँगणै” घणेमान थकी आप सब हुदी पुगाड़ते म्हारा मन मंय घणौ हरख है। घणं वरसं थकी म्हारै मन मों ओक वात हमेस आवती रह्यी के अणा नवा ज़मारा नै नवा ऊसर नं मानवी सप्पा बदलाईग्यं हैं नै जूनी वातै अणी नवी पीड़ी ने कौण वताड़े अर कौण हमझावे? all in all अणां विस्यार हाते म्हें नानूं मोटू लखवूं सरू कर्यु। अटला मों आदरजोग दादा श्री उपेन्द्रजी ‘अणु’, ऋषभदेव, श्री दिनेशजी पंचाल, विकास नगर नै श्री घनश्याम सिंहजी भाटी ‘प्यासा’ नो साथ मल्यौ अर अना लीधै’ज आ चोपड़ी नौ रूप लई आपनै हाथ मों है। Aas Na Aanganealso आणी जातरा मों वागड़ अर वागड़ी नी वात करतै थकै नवा ऊसर नै नवा ज़मारा मों जै वातै जौवा न्हें मलै हैं अर ओम लागे के ई वात अर ई विगत क्य खोवणीं पत्तू ज न्हें है। या’ज विच्यार मन मों उबराताग्या अर म्हूं कौसिस करतौग्यौ। जै वाते विगत म्हारे साथै वीती अर म्हें पण देखी, होंची हमझी या ‘ज वात अर विच्यार आणी चोपड़ी मों लाब्बा नी पूरी कोसिस रह्यी है। औणा हाते जे सबद अवै वागड़ी मों हांबळवा न्हें मलता हैं अर क्यं भी वापरवा मों न्हें आवता हैं औणा सबद नो परिचै करावा नी कोसिस कीदी है। Aas Na Aangane
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Aitihasik Kila : RANTHAMBHORE
-10%Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृतिAitihasik Kila : RANTHAMBHORE
ऐतिहासिक किला : रणथम्भौर किले के गौरवशाली इतिहास को प्रस्तुत कृति के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने हेतु कई प्राचीन ग्रंथों का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया। वर्तमान सन्दर्भ में इसका निरीक्षण करके, वहाँ उपस्थित पर्यटकों, आसपास के ग्रामीण लोगों एवं पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों व विषय से सम्बन्धित व्यक्तियों का साक्षात्कार किया गया। पुस्तक में रणथम्भौर किले का इतिहास, यहाँ शासन करने वाले चैहान वंश के वीर शासकों व अन्य शासकों का इतिहास, किले की स्थापत्य कला, जल प्रबंधन, हम्मीर विषयक रचनाओं व सम्बन्धित साहित्य का विश्लेषणात्मक वर्णन है। किले का हर वह हिस्सा जो अब तक अछूता रहा, उसे भी सहेजने का प्रयास इस पुस्तक में किया गया है।
प्रस्तुत कृति में न केवल ऐतिहासिक वर्णन है अपितु रणथम्भौर की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक स्थितियों के साथ किले की वास्तुकला को विवेचित करते हुए संगीत कला, धर्म और शिक्षा को वर्णित करने का प्रयास किया गया है। इसमें बाघ परियोजना का भी संक्षिप्त विवरण है।
मुझे पूरा विश्वास है कि यह पुस्तक रणथम्भौर किले के इतिहास व किले से सम्बन्धित अन्य पहलुओं की जानकारी हेतु मील का पत्थर साबित होगी। यह पाठकों, शोधार्थियों एवं पर्यटकों की किले के प्रति जिज्ञासा को शांत कर सकेगी व उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी साबित होगी।SKU: n/a -
Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Bauddha Kapalika Sadhna Aur Sahitya
Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, संतों का जीवन चरित व वाणियांBauddha Kapalika Sadhna Aur Sahitya
बौद्ध कापालिक साधना और साहित्य : हिन्दी के आदिकालीन साहित्य और भक्तिकालीन साहित्य की भूमिका प्रस्तुत करनेवाली बौद्ध सिद्धों की अपभ्रंश रचनाओं का अध्ययन केवल हिन्दी ही नहीं सम्पूर्ण समकालीन साहित्य, किंबहुना तत्कालीन समग्र धर्मदार्शनिक एवं साधनात्मक जीवन के अध्ययन के लिए उपयोगी है; क्योंकि तंत्रदर्शन एवं साधना का अति व्यापक एवं गंभीर प्रभाव सर्वत्र दिखाई पड़ता है। इसी दृष्टि से बहुत पहले १९५८ में तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य की रचना की गई थी।
यह ग्रन्थ उस अध्ययन के एक पक्ष का विस्तार है। बहुत पहले आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद जी द्विवेदी ने अपने ग्रंथ ‘नाथ सम्प्रदाय’ में जालंधर पाद और कान्हुपा के कापालिक साधन और ‘बामारग’ की चर्चा नाथ सम्प्रदाय के परिप्रेक्ष्य में ही की थी। दूसरे उस समय बौद्धों के कापालिक साधन और दर्शन से सम्बन्धित किसी शास्त्रीय ग्रन्थ की सहायता नहीं ली गई थी। अतः बौद्धों के कापालिक तत्त्वों, साधनों, दार्शनिक सिद्धान्तों की मीमांसा भी नहीं हो पाई। यहाँ तक कि श्री स्नेलग्रोव ने हेवज्रतंत्र और उसकी टीका हेवज्रपंजिका का संपादन करके भी उसके कापालिक तत्त्वों का विस्तृत विवेचन नहीं किया और न एक पृथक् बौद्ध साधनाधारा के रूप में इसे प्रस्तुत ही किया।
यह ग्रंथ बौद्ध साधना और साहित्य के अनेक अछूते, विस्मृत, तिरस्कृत और महत्त्वपूर्ण सूत्रों को एकत्रित कर उनका व्यवस्थापन करते हुए बौद्धों के कापालिकतत्त्व का स्वरूप प्रस्तुत करता है। सामान्यतया केवल शैवों में ही कापालिकों की स्थिति माननेवालों को इस ग्रंथ से नया प्रकाश, नई सूचनाएँ एवं भारतीय कापालिक साधना का एक नया स्वरूप देखने को मिलेगा। कापालिक साधना के विषय में फैली अनेक भ्रांतियों का निराकरण भी होगा, इसमें संदेह नहीं।
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Bharat Ke Jaat Ratna
भारत के जाट रत्न
भारत में ऐसे अनेक महापुरुष व विभूतियां पैदा हुई हैं जिन्होंने एक समय में भारत का नेतृत्व किया और लोगों के दिलों में छाप छोड़कर अमर हो गये, उसके भी कृत्यों का लिपिबद्ध किया जाए। also इस कड़ी में प्रथम प्रयास में यहां ‘भारत के जाट रत्न’ नामक पुस्तक में जाट कौम में हुए महापुरुषों के कृत्यों का वर्णन किया गया है, जिनमें लोकदेवता वीरवर तेजाजी, महान् संत धन्ना भक्त, जाट कौम के महान् शासक महाराजा सूरजमल, महाराजा जवाहरसिंह, महारानी किशोरी, महाराजा रणजीतसिंह, गरीबों व किसानों के संरक्षक चौधरी सर छोटूराम, दानवीर चौधरी सेठ छाजूराम, देश की आजादी के लिये मर मिटने वाले रणबांकुरे बाबा शाहमल व राजा नाहरसिंह तथा देश के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा महेन्द्रप्रताप तथा भगतसिंह प्रमुख हैं।
ऐसे महापुरुषों के कृत्य भावी पीढ़ी में त्याग, सामाजिक मूल्यों के प्रति आस्था तथा जातीय गौरव की भावना पैदा करने में मददगार साबित होते है। indeed अतः कौम में ऐसे भाव पैदा करने के लिए आवश्यक है कि ऐसे महापुरुषों के कृत्यों को लिपिबद्ध किया जाए और उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया जाए, ताकि उसे पढ़कर आगे आने वाली पीढ़ियां अपने पुरखों पर गर्व कर सकें और यद्यपि ऐसे महान् पुरुष किसी एक जाति विशेष की सम्पत्ति न होकर समूचे राष्ट्र के गौरव होते हैं, but फिर भी इससे कौम में जातीय अतीत के इतिहास में अभिरूचि एवं स्वयं को अपने ऊपर गौरव करने की भावना पैदा होती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक में भारत के कुछ महान् नायकों के कृत्यों को लेखबद्ध करके इतिहास के रूप में आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है।
accordingly इस पुस्तक को लिखने में प्रामाणिक स्रोतों का ही उपयोग किया है और इसे यथासम्भव पूर्ण प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया है। इस पुस्तक को पढ़ने से न केवल हमारी वर्तमान पीढ़ी में गौरव पैदा होगा, बल्कि भावी पीढ़ी में भी उत्साह जागृत होने के साथ ही प्रेरणा मिलेगी और आने वाली संतानें अपने इन पूज्यों को सराहेंगी।
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Bharat Ke Vrat Evam Tyohar
-11%Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृतिBharat Ke Vrat Evam Tyohar
भारत के व्रत एवं त्योहार
भारत को बहुआयामी तथा बहुरंगी संस्कृति में जितना महत्त्व अध्यात्म का है, उतना ही महत्त्व है व्रतों, पर्वों, त्योहारों और उनसे जुड़ी पौराणिक और लोक कथाओं का। इन्हीं पर्वों, व्रतों और कथाओं में छिपे थे, आस्था और विश्वास के बीजमन्त्र। Bharat Ke Vrat Tyohar
वर्तमान युग एक विचित्र संक्रमण का युग है। भौतिक स्पर्धा ने मानव को बुद्धि को तो धारदार किया, किन्तु उसके मन से श्रद्धा और विश्वास का वह स्वर्णिम तन्तु लगभग उखाड़ फेंका है, जो जीवन में सौरव्य के लिए बेहद जरूरी है।
भारतीय ऋषियों ने सत्य, परोपकार, क्षमा, इन्द्रिय-निग्रह, भगवद भजन-ध्यान को धर्म कहा था। बहुत सीधी-सी बात है कि मन शुद्ध है तो विचार सात्विक होगे और उनसे आचरण भी पवित्र होगा, यही धर्म पालन है। also शुद्ध मन, सात्त्विक प्रवृति और पवित्र आचरण में उल्लास और आनन्द भरने के लिए पर्व-त्योहार जुड़े और जुड़ी लोक तथा पौराणिक कथाएं।
but समय क्रम में धीरे-धीरे मन, विचार और आचरण की शुद्धता की जगह आडम्बर बढ़ता गया। मन में द्वेष, परनिन्दा भरी है और ऊपर से घण्टे बजाना या गंगास्नान करना ही धार्मिक होने को गारण्टी बन गया। व्रत तो किया, पर सारा दिन फल-दूध-आलू खाते रहे; खुद ताश खेलते रहे और कथा का कैसेट बजाकर पूजा पूरी हो गई।
accordingly इस पुस्तक में भारत में प्रचलित पर्वों, व्रतों और कथाओं को एक नवीन रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। त्योहारों के विषय में लोक प्रचलित विश्वासों के साथ उनकी वैज्ञानिक व्याख्या भी की गई है। आडम्बर को त्याग कर पर्वों के शुद्ध स्वरूप के पालन पर बल है और पूजा-उपासना से चुने अन्य सभी अनावश्यक त्तत्त्व है।
surely हिन्दू संस्कृति में हर एक दिन की अपनी एक विशेषता होती हैं तथा भारत में कई संस्कृतियों का समावेश हैं, जिससे जुड़ी विचारधाराओं एवं मान्यताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न त्यौहार मनाये जाते हैं।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता, सनातन हिंदू जीवन और दर्शन
Bharatiya Laghu Chitra Shailiyon mein Ankit MAHABHARAT
-15%Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता, सनातन हिंदू जीवन और दर्शनBharatiya Laghu Chitra Shailiyon mein Ankit MAHABHARAT
भारतीय लघु चित्रा शैलियों में अंकित “महाभारत”
भारतीय चित्रकला के इतिहास में कलाओं का जन्म धर्म के साथ ही हुआ है और धर्म ने कला के माध्यम से ही अपनी धार्मिक मान्यताओं को जनता तक पहुँचाया है। भारतीय धार्मिक ग्रन्थों में ‘महाभारत’ एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे किसी विशेष परिचय की आवश्यकता नहीं है। ‘महाभारत’ को संसार का सबसे बड़ा ‘महाकाव्य’ कहा जाता है। सर्व साधारण समाज के साथ-साथ महाभारत जैसे महाकाव्य की महत्ता को समझते हुए चित्रकार वर्ग भी अछूता नहीं रह सका। इस महान धार्मिक विषय को विभिन्न भारतीय लघु चित्र शैलियों में चित्रकारों ने शताब्दियों से अपने चित्रों का विषय बनाया। इन चित्रकारों ने अलग-अलग रियासतों के राजाओं के संरक्षण में रहते हुए अन्य धार्मिक विषयों के साथ-साथ महाभारत विषयक चित्रों का भी बहुतायत से चित्रण कार्य किया था। इन चित्रों को मुख्यतः क्षेत्रीय और शैलिगत विशेषताओं के आधार पर राजस्थानी शैली, मुगल शैली व पहाड़ी शैली के अन्तर्गत विभाजित कर अध्ययन किया जाता है।
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Bharatiya Vidroh ka Lupt Adhyay(HB)
भारतीय विद्रोह का लुप्त अध्याय – कर्नल सी.एल. शाॅवर्स कृत :
भारतीय इतिहास में पश्चिमी सीमा का महत्व आक्रान्ताओं के आयुधों की मार झेलने वाले प्रदेशों के रूप में रहा है। शाॅवर्स ने यह माना कि वह जो कुछ लिख रहा है, वह अन्यत्र नहीं मिलेगा क्योंकि अनेक दस्तावेज, जिनमें अनुपयोगी भी थे, जला दिए। क्रांति जिसे गदर नाम दिया गया है, की अधिकांश घटनाएं ‘ब्लू-बुक’ में मिटाई गई थी। इनमें शाॅवर्स का जो कहना था, वह शेष था और यह पुस्तक उस कथन की कृति है।यह पुस्तक क्रांति के दौर में प्रशासनिक कौशल या विफलता के पर्याय दस्तावेजों और आत्मकथ्यों का संग्रह है। इसमें घोड़ों की टापें, बन्दूकों के बारूद और तोपों के दहाने तो हैं ही, इंसानी हृदय में, पैठे डर और साहस की जुबानी भी है।
पुस्तक गदर के पूर्व और बाद के समग्र घटनाक्रम को संयोजित करती है। दोनों ही रूपों को अध्यायों के विभाजन के साथ लिखा गया हैै। यह पुस्तक देशी रियासतों के सैनिक गठन, उनकी विश्वसनीयता, मुस्तैदी, गुप्तचरी, संदेशों के आदान-प्रदान, घुड़सवारी, आवाजाही, चैकी व्यवस्था, हूटिंग जैसी सूचनाओं के साथ अनेक पारिभाषिक शब्दावली को प्रस्तुत करती है- यह आजादी के आंदोलन के आरंभिक चरण का दस्तावेज है।यह पुस्तक ब्रिटिश सरकार की उन नीतियों का खुलासा भी करती है, जो सामने नहीं थी लेकिन लागू होती थी। इनमें रियासतों को हड़पना और उसके लिए किसी भी सन्धि को लांघ जाना सामान्य बात थी। शाॅवर्स ने अंग्रेजों की इसी नीति की आगे चलकर आलोचना भी की है। यही नहीं, उसने तथ्य भी दिए हैं।
इसका प्रयास आजादी की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर हो रहा हैं। एक तरह से यह दस्तावेज पहली बार हिंदी भाषा में आ रहा है। हमें आशा एवं विश्वास हे कि यह अनेक विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
लेफ्टिनेंट जनरल चाल्र्स लियोनेल शाॅवर्स का जन्म 5 फरवरी 1816ई. को बेरकपुर, पश्चिम बंगाल, भारत में हुआ। ईसाई धर्म रस्म 9 अप्रेल 1816, बेरकपुर, पश्चिम बंगाल, भारत। फ्रेडरिका हेलन हस्र्ट से 9 फरवरी 1856 बर्कशायर, इंग्लैंड में विवाह किया।जनरल चाल्र्स लियोनेल शाॅवर्स ”कोट कांगड़ा“ के समर्पण के समय उपस्थित थे, जो जून 1846 में हुआ। अगले ही वर्ष वे उस अभियान में शामिल हुए, जो पश्चिमी राजपुताना में चलाया गया। इस अभियान का उद्देश्य राजपुताना के रेगिस्तान में आक्रमण आयोजित कर वहाँ के लुटेरों की शक्ति को कम करना था। परिणामतः उनका सरदार ठाकुर जवाहर सिंह पकड़ा गया। शाॅवर्स ने 1848-49 में ”पंजाब अभियान“ में भाग लिया तथा गुजरात के युद्ध के समय वे ‘लार्ड गफ’ के स्टाफ में थे। उन्होंने मध्य भारत के अभियानों में 1857-58 में भाग लिया, जिसमें ‘नीमच’ बागियों का पीछा करना, ‘निम्बाहेड़ा’ पर आक्रमण कर उस पर कब्जा करना, नीमच किले के सामने के तोपखाने का मसला तथा प्रतापगढ़ पर की गई कार्यवाही है।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bhartiya Kala evam Sanskriti : Vividh Aayam
-15%Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृतिBhartiya Kala evam Sanskriti : Vividh Aayam
भारतीय कला एवं संस्कृति : विविध आयाम – प्रकृति को समस्त कलाओं की जननी माना गया है। प्रकृति की छटा देखकर और उसकी सृष्टि के रहस्यों को समझकर ही मानव कलाकार अपनी कला को प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित हुआ है। समस्त मानवीय क्रियाएँ, ज्ञान-विज्ञान और कलाएँ इसी प्रकृति के सृष्टिकारक रहस्यों को समझने, उनका उपभोग करने और उन्हीं के आधार पर पुनः सृष्टि करने में ही प्रस्फुटित हुई हैं। प्रकृति के मूल में जो सृष्टिकारक शक्ति है वही मानव को आकृष्ट कर उसे भी सृजन-निमित्त प्रेरणा प्रदान करती है। मनुष्य ने आदि सृष्टि-कारक ब्रह्म की कल्पना की। कालान्तर में यही, ब्रह्म प्राप्ति एवं कला का लक्ष्य भी बनी। प्रकृति के रहस्यमय स्वरूप के कारण उसके अनेक प्रतीकात्मक अंकन हुए। संस्कृति जीवन को परिष्कृत करने की एक प्रक्रिया है। यह व्यक्ति के आचरण में निहित होती है। संस्कृति एक गत्यात्मक तथ्य है जो अपनी परम्परा की पृष्ठभूमि में विकसित होती है और युग और उसकी चेतना के अनुसार अपने स्वरूप को परिवर्तित करती है। भारतीय संस्कृति का शान्ति, अहिंसा एवं विश्व-बन्धुत्व का आदर्श आज युद्ध की विभिषिका से त्रस्त मानव के लिए आशा की एक किरण है। ऐसी परिस्थिति में इस महान् संस्कृति के स्वरूप और गौरवपूर्ण योगदान को भली प्रकार समझना नितान्त आवश्यक है। इसी उद्देश्य को लेकर लेखिका ने समय-समय पर अनेक संगोष्ठियों में भाग लेकर कला एवं संस्कृति के विविध आयामों पर शोध-पत्र वाचन किए, जो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हुए हैं। ग्रन्थकार ने यथास्थान चित्रों द्वारा विषय को अधिक सुबोध, रोचक एवं उपयोगी बनाने की चेष्टा की है। पारिभाषिक शब्दों के देवनागरी रूपान्तर द्वारा विषय को अधिकाधिक बोधगम्य बनाने का भी प्रयास किया गया है।
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Bhartiya Prachin Lipimala
भारतीय प्राचीन लिपिमाला (The Palaeography of India) : एशिआटिक सोसाइटी बंगाल के द्वारा कार्य आरंभ होते ही कई विद्धान अपनी रूचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों के शोध में लगे। कितने ही विद्धानों ने यहां के ऐतिहासिक शोध में लग कर प्राचीन शिलालेख, दानपत्र और सिक्कों का टटोलना शुरू किया, इस प्रकार भारतवर्ष की प्राचीन लिपियों पर विद्धानों की दृष्टि पड़ी, भारत वर्ष जैसे विशाल देश में लेखन शैली के प्रवाह ने लेखकों की भिन्न रूचि के अनुसार भिन्न-भिन्न मार्ग ग्रहण किये थे, जिससे प्राचीन ब्राह्मी लिपि से गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा, बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग तमिल आदि अनेक लिपियां निकली और समय-समय पर उनके कई रूपांतर होते गये, जिससे सारे देश की प्राचीन लिपियों का पढना कठिन हो गया था; परंतु चार्ल्स विल्किन्स, पंडित राधाकांत शर्मा, कर्नल जैम्स टॉड के गुरू यति ज्ञान चन्द्र, डॉ. बी.जी. बॅबिंगटन, वॉल्टर इलिअट, डॉ. मिल, डबल्यू. एच. वॉथन, जैम्स प्रिन्सेप आदि विद्धानों ने ब्राह्मी और उससे निकली हुई उपयुक्त लिपियों को बड़े परिश्रम से पढ़कर उनकी वर्ण मालाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इसी तरह जैम्स प्रिन्सेप, मि. नॉरिस तथा जनरल कनिंग्हाम आदि विद्धानों के श्रम से विदेशी खरोष्टी लिपि की वर्णमाला भी मालूम हो गई। इन सब विद्धानों का यत्न प्रशंसनीय है परंतु जैम्स प्रिन्सेप का अगाध श्रम, जिससे अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि का तथा खरोष्ठी लिपि के कई अक्षरों का ज्ञान प्राप्त हुआ, विशेष प्रशंसा के योग्य है।
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Bhartiya Rajniti Mein Naitik Sankat
भारतीय राजनीति में नैतिक संकट : The present work on the ‘Moral Crisis in Indian Politics’, edited by Dr. Sangat Singh demonstrates clearly his scholarly, taste and ability. Spending a lot of time in editing and having a lot of knowledge in the discipline concerned, Dr. Sangat Singh has, in fact, produced a magnificent work of scholarship. Being a serious study on an important theme of Indian politics, I feel that Dr. Sangat Singh’s work would make a mark on the existing literature in the field of Indian politics.
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Bhartiya Sanskriti (HB)
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भारतीय संस्कृति : सहस्त्राब्दियों से भारत भूमि की परम्पराओं, विश्वासों, आस्थाओं तथा विचारधाराओं और सुनियोजित संस्थाओं की एकत्र पूंजीभूत भारतीय संस्कृति में भारतीय मानस का समग्र स्वरूप सहज ही प्रतिबिम्बित होता है। समय के अजस्त्र तथा परिवर्तनशील प्रवाह में भी निरन्तर जीवन्त भारतीय संस्कृति की स्फूर्त प्राणवत्ता ने आधुनिक विचारकों को आश्चर्यचकित और मुग्ध कर रखा है। यही कारण है कि सम्पूर्ण बीसवीं शती में अनेकानेक सुधी विद्वानों ने भारतीय संस्कृति को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उन शाताधिक रचनाओं के मध्य प्रस्तुत पुस्तक का कुछ निजी वैशिष्टय है
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Bhati Vansh Ka Gauravmay Itihas (Vols. 1-2)
भाटी वंश का गौरवमय इतिहास
राष्ट्रधर्मी यदुवंशी भाटी (वि.सं. 680/623 ई.) के वंशजों का राजस्थान में ही नहीं भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उत्तर-पश्चिम भारत की ओर एक के बाद एक अनेक राजधानियाँ स्थापित करने वाले भाटी शासकों ने विदेशी आक्रांताओं से प्रतिरोध कर जहां राष्ट्र की रक्षा करने के दायित्व का निर्वाह किया वहीं अपने क्षेत्र की भूमि को आबाद करने के साथ जन-जन की रक्षा करने और संस्कृति को बचाने में अपना बलिदान दिया। Bhati Vansh Gauravmay Itihas
श्री कृष्ण-वंशी भाटियों के इतिहास को पुराणों के सहारे धरातल से जोड़ा गया है और भटनेर, मारोठ, तन्नोट, देरावर, लोद्रवा जैसलमेर के भाटी शासकों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों को आंकते हुए युद्ध अभियानों और रचनात्मक कार्यों पर प्रकाश डाला गया है। together with उनकी संतति से अंकुरित हुई शाखाओं के बारे में समुचित परिचय दिया है। additionally इतना ही नहीं पड़ौसी राज्यों के साथ सम्बन्ध, केन्द्रीय सत्ता (मुगल, अंग्रेज) के साथ हुए संधि-समझौतों, शासन प्रबंध, परगनां का गठन, आर्थिक-सामाजिक जीवन, भाटी ठिकाने व ठिकानेदारों की भूमिका, प्राचीन शाखाओं, प्रवासी भाटी आदि अनेक तथ्यों को प्राचीन ग्रन्थों एवं शोध यात्राओं से शिलालेखों की खोज कर इनके आधार पर प्रमाणित करने का प्रयास किया है।
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Bourae Pratibimb
बौराए प्रतिबिम्ब
at first ‘क्या कहूँ ? वैसे जो होता है वह किसी को पूरा दीखता है क्या? आप मुझे इस वक्त ढहते हुए देख रहे हैं पर यही तो असल में ढह जाना नहीं है। इससे पहले का सब कुछ ? आप न देख सकते हैं, न मैं ढहने के उन क्षणों को बता सकती हूँ।” — गालों पर ढुरक आए आँसुओं को तनेश पोंछना चाहा किन्तु तत्क्षण ही कुछ सोचते हुए जेब से रूमाल निकालकर उसकी तरफ़ बढ़ाया। so नीना ने सकुचाते हुए रूमाल की तरफ़ देखा फिर आँचल के छोर से आँसू पोंछ लिए। कुछ पलों की चुप्पी के बाद किसी तरह नम आवाज़ में कहा – “क्या कुछ ऐसा नहीं हुआ कि होशहवास बने रहना भी मुश्किल था…लेकिन भगवान का शुक्र है कि कुछ होश बाकी है अभी।” Bourae Pratibimb Deepti Kulshreshtha
यह कोई नहीं जान पाया कि वह किस तरह निरीह और निस्सहाय होती जा रही है। ख़ामोश कमरों में दुबके दिन उसे भी ख़ामोश करते जा रहे हैं। वह पल-पल बिंधती रही, स्वयं को अनचाही सज़ा देती रही। किन्तु ऐसे बहुत से संकेत थे जो इस बदलाव की तरफ़ इंगित कर रहे थे। भीतर सबकुछ निर्जीव होता जा रहा था। गतिविहीन, घटनाविहीन दिखने वाली घड़ियों में बिना किसी आकस्मिकता के यह गहन अवसाद दबे पाँव चलता चला आया। hence अपनी उदासियों में डूबी हुई वह उतनी ही शांत रही और अक्सर बहुत धैर्य के साथ सब देखती, सुनती और सहती रही तो यह अवसाद उतनी ही शिद्दत से दर्ज़ होता रहा।
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Champawaton Ka Itihas
चांपावतों का इतिहास
मारवाड़ में मुगल सत्ता के विरुद्ध यहां के शासकों द्वारा एक सशस्त्र अभियान चलाया गया। इतिहास साक्षी मा है कि इन युद्धों में चांपावत वीरों ने आत्मोत्सर्ग करते हुए अपनी परम देशभक्ति एवं स्वामिभक्ति का परिचय दिया। जब महाराजा अजितसिंह ने वयस्क होने पर दुर्गादास को मारवाड़ के प्रधान का पद देना चाहा तो दुर्गादास ने स्वयं के लिए स्वीकार न कर वह पद ठाकुर मुकुन्ददास चांपावत (पाली) को देने का आग्रह किया। इस प्रकार राठौड़ों द्वारा मारवाड़ की रक्षा तथा स्वतंत्रता के लिए किये गए युद्धों के इतिहास में चांपावत शाखा का इतिहास महत्वपूर्ण रहा है। Champawaton Ka Itihas – Thakur Mohan Singh Kanota
ठाकुर मोहनसिंहजी कानोता द्वारा चालीस अध्यायों में रचित ‘चांपावतों का इतिहास’ एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। accordingly प्रत्येक अध्याय में चांपावत शाखा की उपशाखा पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। प्रशाखाओं के प्रवर्त्तक, उनके ठिकानों तथा ठिकानों के भाई-बेटों के क्रियाकलापों का भी रोचक वर्णन किया गया है। साथ ही शाखा प्रमुख राव चंपकराज से लेकर इस शाखा के घरानों की विभिन्न उपशाखाओं, प्रशाखाओं की ब्यौरेवार वंशावलियां, स्वयं उनके भाइयों की जागीरें तथा उनके पुत्र-पुत्रियों के विवाह आदि संबंधों पर भी समग्रता से विचार किया गया है।
इस दृष्टि से surely यह पुस्तक चांपावत राठौड़ों की ही नहीं अपितु उनके सगे-संबंधियों कछवाहों, सिसोदियों, चौहानों, हाड़ों और भाटियों के इतिहास के लिए भी निस्संदेह सर्वथा उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है तथा उनके बारे में सविस्तार, सुव्यवस्थित एवं प्रामाणिक व विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध करवाती है। एकद्कालीन राजस्थान के कतिपय राजघरानों के इतिहास के लिए भी ऐतिहासिक दृष्टि से अहम सामग्री से परिपूर्ण है। इसमें शूरवीर चांपावत राठौड़ों की कर्मठता, स्वामिभक्ति, मारवाड़ के प्रति प्रेम साथ-साथ अपने वचन की रक्षा करने और आन-बान-शान के लिए मर-मिटने के अनेकानेक प्रसंग प्राप्त होते हैं।
Champawaton Ka Itihas – Thakur Mohan Singh Kanota (Thakur Man Singh Kanota)
इन वीर गाथाओं तथा चांपावतों के गौरवमयी इतिहास को एक पुस्तक में प्रस्तुत करना एक असाध्य कार्य है, जिसे ठाकुर मोहनसिंहजी कानोता ने अत्यंत ही सुंदर, सरल व चित्रात्मक तरीके से प्रस्तुत करने का भगीरथ प्रयास किया है। वे इसके लिए प्रशंसा के पात्र हैं। इनके द्वारा निबद्ध चांपावतों के इतिहास का धैर्यपूर्वक सविवेक अध्ययन करने पर राजस्थान और विशेषत: मारवाड़ के इतिहास के लिए अनेक ऐसे सूत्र तथा संकेत – संदर्भ प्राप्त होते हैं। प्रशाखाओं का क्रमवार सुव्यस्थित वर्णन एवं वंशावलियों के साथ सारणियां पुस्तक को और अधिक सुरुचिपूर्ण, विश्वसनीय एवं पठनीय बनाती हैं। इसमें मारवाड़ में हुए तत्कालीन युद्धों तथा संघर्षों का वर्णन तो है ही, साथ में यह पुस्तक राजस्थान का समकालीन सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक परिदृश्य प्रस्तुत करती है। इसमें पूर्वकालीन शासकों द्वारा जनहित में किए गए कार्यों आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
all in all ठाकुर मोहनसिंहजी कानोता द्वारा लिखित ‘चांपावतों का इतिहास’ केवल राजपूत समाज के लिए ही नहीं अपितु इतिहासप्रेमियों के लिए भी धरोहरस्वरूप है। यह पुस्तक युवा पीढ़ी के लिए भी मार्गदर्शक एवं प्रेरणास्त्रोत है कि किस तरह से राजपूतों के छोटे बालकों, युवाओं तथा महिलाओं ने अपनी मातृभूमि की सेवा में अपने प्राणों की आहूति देकर इस धरा को पूजनीय बना दिया।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, इतिहास
Charani Lok Kavya Soundrya
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चारणी लोक काव्य सौन्दर्य
चारणी-डिंगल साहित्य वैसे तो वीर रस की कविताओं के लिए सुप्रसिद्ध है, लेकिन इसमें श्रृंगार रस का भी निरूपण किया गया है। इस ग्रंथ में चारणी-डिंगल कविता के वीर एवं श्रृंगार रस के काव्य सौंदर्य को उजागर किया है। यह संशोधन का नहीं बल्कि काव्यास्वाद का ग्रंथ है। Charani Lok Kavya Soundrya
हम चारणी-डिंगल कविता की कितनी ही प्रशंसा करें, लेकिन जब तक बृहद् समाज को, शिष्ठ साहित्यकारों को उसके काव्य सौंदर्य का अनुभव न हो, तो वह व्यर्थ है।
चारण कवि एंव इतिहासकार
चारण साहित्य की शैली अधिकतर वर्णनात्मक है और इसे दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है: कथात्मक और प्रकीर्ण काव्य। also चारण साहित्य के कथात्मक काव्यरूप को विभिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे, रास, रासौ, रूपक, प्रकाश, छंद, विलास, प्रबंध, आयन, संवाद, आदि। इन काव्यों की पहचान मीटर से भी कर सकते हैं जैसे, कवित्त, कुंडलिया, झूलणा, निसाणी, झमाल और वेली आदि। प्रकीर्ण काव्यरूप की कविताएँ भी इनका उपयोग करती हैं। डिंगलभाषा में लिखे गए विभिन्न स्रोत, जिन्हें बात (वार्ता), ख्यात, विगत, पिढ़ीआवली और वंशावली के नाम से जाना जाता है, मध्ययुगीन काल के अध्ययन के लिए प्राथमिक आधार-सामग्री का सबसे महत्वपूर्ण निकाय है।
although, चारणों के लिए, काव्य रचना और पाठ एक पारंपरिक ‘क्रीड़ा’ थी, जो सैन्य सेवा, कृषि, और अश्व (घोड़ों) और पशु व्यापार के प्राथमिक आय उत्पादक व्यवसायों के अधीन था। तथापि, महत्वाकांक्षी और प्रतिभाशाली चारण युवा व्यापक मार्गदर्शन के लिए अन्य चारण विद्वानों से पारंपरिक शिक्षा ग्रहण करते थे। एक विद्वान द्वारा शिष्य के रूप में स्वीकार किये जाने पर, वे काव्य रचना और कथन के आधारभूत ज्ञान के साथ-साथ विशेष भाषाओं में उपदेश और उदाहरण द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इनका संस्मरण और मौखिक सस्वर पाठ करने पर ज़ोर दिया जाता था। चारण शिष्य प्राचीन रचनाओं का पाठ करते हुए अपनी शैली में लगातार सुधार करते थे।
डिंगल, संस्कृत, ब्रजभाषा, उर्दू और फारसी जैसी भाषाओं का ज्ञान भी विशिष्ट आचार्यों की सहायता से प्राप्त किया जाता था। so इस प्रकार, अध्ययन किए गए विषयों में न केवल इतिहास और साहित्य, बल्कि धर्म, ज्योतिष, संगीत और शकुन ज्ञान भी शामिल थे। उस समय के प्रख्यात चारण कवि राजदरबार का भाग थे, जिन्हें कविराज के पद से भी जाना जाता था।
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Chittor Ke Johar Va Shaake
चित्तौड़ के जौहर व शाके : वीरता के राष्ट्रीय तीर्थ चित्तौड़ का नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। यहाँ का कणदृकण स्वतन्त्रता के लिए जीवन की आहुति देने वाले बलिदानी वीरों के आत्मोसर्ग की कहानी कह रहा है। राजस्थान की युद्ध परम्परा में जौहर व शाकों का अपना विशिष्ट स्थान है। यहाँ पराधीनता की बजाय मृत्यु का आलिंगन श्रेष्ठ माना गया है। मध्यकाल में जब रक्षात्मक युद्ध करते समय यह स्थिति आ जाती है कि शत्रु के घेरे के भीतर रहकर अधिक दिन तक जीवित रहने की सम्भावना नहीं रहती तब जौहर व शाके किये जाते थे। चित्तौड़गढ़ पर ऐसे इतिहास प्रसिद्ध तीन शाके हुए, जिनका विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है। ऐतिहासिक व साहित्यिक दोनों की दृष्टि से यह पुस्तक उपादेय है।
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Chittorgarh ka Itihas
चित्तौड़गढ़ का इतिहास – श्री रामवल्लभ सोमानी कृत वीरभूमि चित्तौड़ पर आधारित :
चित्रकूटाचलं चर्चितं च चत्वार चच्चेति।
चारुचैत्यं चित्रांगणं चित्रयोधां चतुरंगणम्।।दुर्गों में सिरमौर चित्तौड़ की महिमा पृथ्वी के मनोरम मुकुट रूप में की गई है। चित्तौड़गढ़ चार ‘च’ के लिए भी चर्चित है। उसमें पहला सुंदर मंदिर, दूसरा चित्रांगन किला, तीसरा विचित्र लड़ाई करने वाले योद्धा और चैथा चतुरंग (चैसर या चतुरंगिनी सेना)। इसके नाम पर चित्तौड़ी आठम तिथि मनाई जाती है। इसमें आठ अहम चित्तौड़ी शब्द हैः- चित्तौड़ी गड़ (सुंदर, सुघड़ गढ़), चित्तौड़ी चड़ (चढ़ाई, फतह), चित्तौड़ी खड (पाषाण की खरल), चित्तौड़ी लड़ (निर्णायक लड़ाई), चित्तौड़ी जड़ (बातचीत की साख), चित्तौड़ी बड़ (बड़ाई, बड़प्पन), चित्तौड़ी भड़ (सहारा, इमदाद), चित्तौड़ी पड़ (शरणागति) एक दोहे में यह सब कहा गया हैः- चित्तौड़ी गड़ खड़ लड़, जड़ भड़पण अणमाप। महिमा वो ही जाणसी, जे चड़ छड़ पड़ तापत्र।।
यह दुर्ग अपने मानक गज और मुद्रा प्रमाण के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। चित्तौड़ी गज (24 अंगुल प्रमाण), चित्तौड़ी प्रत (ग्रंथों की प्रमाणित प्रति), चित्तौड़ी टकसाल (मुद्रापातन शाला), चित्तौड़ी सिक्का (सुंदर और खरे सिक्के)
चित्तौड़ के सिक्के आज भी खरे हैं। सदियों पुराने नगरी के पंचमार्क और चित्तौड़ के महाराणाओं के नाम वाले सिक्के आज भी अनेकों संग्रह में है, जिनमें महाराणा मोकल, कुंभा, रायमल, सांगा और बनवीर आदि के शासनकाल के दुर्लभ सिक्के शामिल हैं। महाराणा स्वरूपसिंह, सज्जनसिंह से लेकर आजादी मिलने तक ‘दोस्ती लंदन’ के जो सिक्के चलते थे, शुद्ध चांदी के थे और 17 आना यानी 100 प्रतिशत से अधिक मानक वाले थे। बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक चित्तौड़ दुर्ग ही देशी रियासतों में ऐसा था, जिसके चित्र को सिक्के पर ढाला गया था। चित्तौड़ ऐसा दुर्ग हैं, जहां सौ से अधिक शिलालेख मिले हैं। एक से बढ़कर एक और एक पंक्ति से लेकर सौ-सौ श्लोक तक प्रमाण वाले दस्तावेज। दुनिया में सबसे अधिक ताम्रपत्र मेवाड़ में ही मिले हैं। चित्तौड़ के प्रशस्तिकार वेद शर्मा, अत्रि भट्ट, महेश दशोरा के बड़े नाम हैं। महेश से मेवाड़ महाराणाओं सहित मालवा के सुल्तानों ने भी प्रशस्तियां लिखवाईं। ये विश्वास महाराष्ट्र में देवगिरि तक बना रहा।
गुजरात के शत्रुंजय पर्वत पर जैन मंदिर के निर्माण और जीर्णोद्धार में चित्तौड़ के सूत्रधार और शिल्पियों का सहयोग रहा। मालवा, मारवाड़, गोड़वाड़ आदि में यहां के शिल्पियों के बनाए महल, बाग बगीचे, बावड़ियां व मंदिर अलग पहचान रखते हैं। वास्तु के सबसे अधिक ग्रंथ यहीं तैयार हुए, जिनमें समरांगन सूत्रधार, अपराजित पृच्छा से लेकर राज वल्लभ आदि दर्जनों ग्रंथ शामिल हैं।SKU: n/a