Rani Padmini
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Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Chittor ki Maharani Padmini ki Aitihasikata
चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की ऐतिहासिकता : अपनी मातृभूमि और संतति की रक्षा, अपनी आन तथा अस्मिता को अक्षुण्ण रखने की टेक और अपने कुल के सत और गौरव पर प्रहार का सामना करने के लिए कटिबद्ध हो जाना मनुष्य मात्र का स्वभाव है, नैसर्गिक गुण है। कुछ समुदाय व कुल इसको इतना अधिक महत्त्व देते हैं कि प्राणों का बलिदान करने में भी नहीं हिचकते। उनका यह बलिदान लगभग सभी संस्कृतियों में सराहा जाता है और उसका गौरव-गान किया जाता है। ऐसी मार्मिक घटनाओं पर राजनैतिक इतिहासकार वाद-विवाद, छिद्रान्वेषण करते ही रहते हैं पर ऐसी सभी बाधाओं को पार कर चित्तौड़ की पद्मिनी और उसके परिवार का ऐसा ही बलिदान अपने गढ़ से निकलकर जनश्रुति और लोक कलाओं के माध्यम से काल प्रवाह के साथ मेवाड़ और राजपूताने से होता हुआ समस्त भारत में फैल गया। आज तो यह गाथा मानव संस्कृति की धरोहर का एक अंग बन गई है। पद्मिनी की प्रसिद्धि चारों ओर फैली। सूफी कवि जायसी ने अवधी बोली में पद्मावत लिखा, अवधी से इसका अनुवाद दक्खिनी हिन्दी में हुआ, साथ ही इस गाथा पर आधारित रचनाएँ दक्षिण में भी होने लगी। 17वीं शती में तो द्विलिपिय रचनाएं आने लगीं, विशेषकर राजपूत मनसबदारों के लिए ऐसी पुस्तकें फारसी और देवनागरी दोनों लिपियों में लिखी जाती थी। आंबेर के राजाओं के संग्रह में ऐसी पुस्तकें उपलब्ध हैं। 16वीं से 19वीं शती तक प्रतिकृतियाँ तैयार होती रहीं और चित्रकार पद्मिनी की गाथा अंकित करते रहे। जोगी-गायक इसका गायन करते रहे, न तो कवियों व लेखकों की लेखनी रूकी और न ही चित्रकारों की तूलिका।
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Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
चित्तौड़ की रानी पद्मिनी | Chittore ki Rani Padmini
Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरणचित्तौड़ की रानी पद्मिनी | Chittore ki Rani Padmini
मेवाड़ के शीर्ष-पुरुषों की कीर्तिपूजा अपने शब्द-सुमनों से करने के उपरान्त और भक्त-शिरोमणि मीरां की श्रद्धांजलि समर्पित करने मे बाद भी, इन सबकी पंक्ति में प्रथम स्थान प्राप्त, मेवाड़ में इतिहास-लेखन-परम्परा प्रारम्भ करने वाले और अपनी कीर्ति में अपना, मेवाड़ में सबसे उत्तंग कीर्ति-स्तम्भ निर्मित कराने वाले, जो अब भारत की श्रेष्ठता का द्योतक बना हुआ है, महाराणा कुंभा से 100 वर्ष पहले होने वाली, अनेक प्रकार से अनुपम, जिनकी सौन्दर्य-सिद्धि के लिए समुद्रपार सिंहल द्वीप में उनका उद्गम उल्लिखित हुआ है और जिन्होंने चित्तौड़ में जौहर प्रणाली का प्रारम्भ करके उसकी ज्वालाओं से अपने पति का आत्मोसर्ग मार्ग आलोकित किया, उन राजरानी पद्मिनी की चारित मेरी लेखनी की परिधि से बाहर अब तक क्यों रहा, इसका कारण मुझसे अब तक नहीं बन पड़ा है, सिवाय इसके कि उनकी गाथा उनके समय में अब तक पद्मिनी की कोई क्रमबद्ध जीवनी नहीं है। मुनि जिनविजय जैसे अध्येता और उद्भट विद्वान को भी प्रश्न उठाना पड़ा है : “यह एक आश्चर्य सा लगता है, कि हेमरतन आदि राजस्थानी कवियों ने पद्मिनी के जीवन के अन्तिम रहस्य के बारे में कुछ नहीं लिखा?” इस अवधि में ही आता है साका और जौहर, जो राजस्थानी वीर परम्परा के ऐसे अंत रहे, जिसे भावी पंक्तिया प्रेरणा प्राप्त करती रहीं। इसकी परिपूर्ति करने का साहस मुझ जैसे मेवाड़ से दूर बैठकर अध्ययन और अभिव्यक्ति करने वाले अल्पज्ञ का नहीं हो सकता। फिर भी पद्मिनी चरित के अधूरे अंशों को शब्दों से ढकने का प्रयत्न मैंने इस पुस्तक में किया है।
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