Taslima Nasrin Books
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
AURAT KA KOI DESH NAHIN (PAPER BACK)
तसलीमा नसरीन की यह पुस्तक जिसका अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया है विभिन्न अखबारों में लिखे हुए कॉलमों का संग्रह है! यह किताब उन औरतों को समर्पित है,जो अपने कदम,’लोग क्या कहेंगे’ के दर से पीछे नहीं हटातीं। उन लोगों की जो इच्छा होती है,वही करती हैं। वर्तमान युग के नन्हें अंश के टुकड़े –टुकड़े चुन कर लेखिका ने इस पुस्तक में जोडे है यह पुस्तक महिलाओं के भविष्य को जगमगाता हुआ देखने की सुखद चाह का नतीजा है।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
AURAT KE HAQ MEIN
तसलीमा नसरीन का जीवन संघर्षों का एक अनन्त सिलसिला है और उनका साहित्य उन तमाम संघर्षों की एक अन्तहीन दास्तान। अपने लेखन के जरिये उन्होंने संघर्ष, विद्रोह और मुक्ति की पुकार को एकाकार कर दिया है। जीवन में जो कुछ भी वर्जित, घृणित और उपेक्षित है, तसलीमा अपने साहित्य में उन सबको एक उदात्त आयाम देकर प्रस्तुत करती हैं। तसलीमा को पढने के बाद पाठक अपने आप को एक वीभत्स यथार्थ के सामने पाता है और उसका नजरिया बदलने लगता है। तसलीमा फेमिनिज्म के बने-बनाए ढाँचों को तोड़कर हमारे सामने उसका एक अलग पाठ प्रस्तुत करती हैं।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
CHHOTE CHHOTE DUKH
मापकाठी आख़िर किसके हाथ में है? औरत की सीमा या सीमाहीनता का फ़ैसला आख़िर कौन करेगा? यह हक़ क्या मर्द को है? यानी मर्द ही क्या समाज का। नियन्ता है? पुरुष-आधिपत्यमय समाज, क़दम-क़दम पर औरत का चरम अपमान करता है। अधिकांश मर्द ही यह समझते हैं कि औरत भोग की वस्तु है। धर्म ने। औरत को मर्द की दासी बनाया है। अपमान का भारी बोझ ढोते-ढोते औरत किसी वक्त आविष्कार करती है। कि उसकी छाती में बूँद- बूँद करके, दुःख और यन्त्रणा का पहाड़ जम गया है। इस पहाड़ को अपनी दोनों बाँहों। से धकियाते-ढकेलते औरत आज क्लान्त और बेजार है। लेकिन किसी की भी ज़िन्दगी की कहानी, यहीं ख़त्म नहीं होती। लेखिका को विश्वास है, वे सपने देखती हैं, औरत आग बन जाए। इस पुरुष-नियंत्रित समाज पर वह जवाबी अघात करे। जो कुछ चरम है, खुद चरमपन्थी बनकर ही, औरत जंग करे। ‘रानी बिटिया’ या ‘रानी-बहू’ बनकर या अनुगृहीत होकर जीने-रहने के दिन अब गुज़र गये। औरत के असहनीय दुःख-यन्त्रणा के कंकड़-पत्थर से ही उसकी मुक्ति और युक्ति की राह तैयार हो। अपनी अन्यान्य किताबों की तरह, तसलीमा नसरीन ने अपनी इस पुस्तक में भी कामना की है- ‘औरत इन्सान है-यही औरत का पहला और आखिरी परिचय हो।’ बंगलादेश में सन् 1994 में यह किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी। कॉलम का रचनाकाल है 1992-93 । निर्वासित जीवन की शुरुआत के बाद, लेखिका के और-और कुछेक कॉलम भी बंगलादेश और पश्चिम बंगाल के अख़बारों में प्रकाशित हुए। ‘छोटे-छोटे दुःख’ में उनकी पहले की और परवर्ती विभिन्न समयों में प्रकाशित कुछेक रचनाएँ संगृहीत की गयी हैं।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan, उपन्यास
Do Aurton Ke Patra (Paper Back)
“प्रस्तुत कृति में पुरुष शासित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का हू-ब-हू चित्रण है। स्त्री-भोग्या मात्र है और धर्मशास्त्रों में भी उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। ईश्वर की कल्पना तक में परोक्षतः नारी-पीड़ा का समर्थन किया गया है। सामाजिकत रूढ़ियों के पालन में, और दाम्पात्य जावन के प्रत्येक क्षेत्र में-यानी स्त्रियों के किसी भी मामले में पुरुषों की लालसा, नीचता, आक्रमकता, और निरंकुश भाव को तसलीमा ने खुले आम चुनौती दी है। अपनी दुस्साहसपूर्ण भाषा-शाली और दो टूक अंदाज में अपने विचारों को इस तरह रखा है कि पाठक एक बारगी तो तिलमिला उठता है। पुरुष शासित समाज में स्त्रियों के अधिकार और नारी–मुक्ति को लेकर चाहे जितने बड़े-बड़े दावे पेश किये जाएँ, बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का स्वर निस्सन्देह सबसे भास्वर है। उनके लेखन का तेवर सर्वाधिक व्यंग्य मुखर और तिलमिला दोनो वाला है। संस्कार मुक्ति प्रतिवादी और बेबाक तसलीमा ने अपने ‘निर्वाचित कलम’ द्वारा बांग्लादेश में एक जबरदस्त हलचल-सी मचा दी और जैसा कि तय था, विवाद के केन्द्र में आ गयी। इस अप्रतिम रचना को आनन्द पुरस्कार से सम्मानित किये जाने की खबर से सारे देश में एक कृति के प्रति स्वभावतः कौतुहल पैदा हो गया। उक्त रचना के साथ उनके द्वारा इसी विषय पर लिखित उनके अन्य लेखों को भी पस्तुत संस्करण में सम्मिलित कर लिया गया है। इस कृति में तसलीमा ने बचपन से लेकर अब तक की निर्मम, नग्न और निष्ठुर घटनाओं और अनुभवों के आलोक में नये सवाल उठाए गये हैं, जिनसे स्त्रियों के समान अधिकारों को एक सार्थक एवं निर्णायक प्रस्थान प्राप्त हुआ है। “
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Vani Prakashan, उपन्यास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
DWIKHANDIT
जब हम एक लेखक की ‘आत्मकथा’ पढ़ते हैं, तो वह उन्हीं शब्दों के माध्यम से अपनी कहानी कहता है जो उसने अपनी कविताओं, उपन्यासों में प्रयोग किये थे किन्तु जब एक चित्रकार या संगीतकार अपने जीवन के बारे में कुछ कहता है तो उसे अपनी ‘सृजन भाषा’ से नीचे उतर कर एक ऐसी भाषा का आश्रय लेना पड़ता है, जो एक दूसरी दुनिया में बोली जाती है, उससे बहुत अलग और दूर, जिसमें उसकी ‘कालात्मा’ अपने को व्यक्त करती है । वह एक ऐसी दुनिया है, जहाँ वह है भी और नहीं भी, उसे अपनी नहीं अनुवाद की भाषा में बात कहनी पड़ती है । हम शब्दों की खिड़की से एक ऐसी दुनिया की झलक पाते हैं , जो ‘शब्दातीत’ है -जो बिम्बों, सुरों, रंगों के भीतर संचारित होती है । हम पहली बार उनके भीतर उस ‘मौन’ को मूर्तिमान होते देखते हैं, जो लेखक अपने शब्दों के बीच खाली छोड़ जाता है । हुसेन की आत्मकथा की यह अनोखी और अद्भूत विशेषता है, कि वह अनुवाद की बैसाखी से नहीं सीधे चित्रकला की शर्तों पर, बिम्बों के माध्यम से अपनी भाषा को रूपान्तरित करती है । ऐसा वह इसलिए कर पाती है, क्योंकि उसमें चित्रकार हुसेन उस ‘दूसरे ‘ से अपना अलगाव और दूरी बनाये रखते हैं, जिसका नाम मकबूल है, जिसकी जीवन-कथा वह बाँचते हैं, जिसने जन्म लेते ही अपनी माँ को खो दिया, जो इन्दौर के गली-कूचों में अपना बचपन गुजारता है, बम्बई के चौराहों पर फिल्मी सितारों के होर्डिग बनाता है, कितनी बार प्रेम में डूबता है, उबरता है, उबार कर जो बाहर उजाले में लाता है उनकी तस्वीरें बनाता है । धूल धूसरित असंख्य ब्योरे, जिनके भीतर के एक लड़के की झोली, बेडौल, नि श्छल छवि धीरे धीरे ‘एम. एफ. हुसेन, की प्रतिमा में परिणत होती है ।
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Vani Prakashan
KUCHH GADYA KUCHH PADYA
ऐसा कम ही होता है कि एक बड़े लेखक का भी समस्त लेखन समान रूप से प्रौढ़ और महत्त्वपूर्ण हो यद्यपि इसका अभिप्राय यह नहीं है कि जो लेखन अपेक्षया कम महत्त्वपूर्ण होता है, उसकी उपेक्षा करके लेखक को सम्यक् रूप से पाया जा सकता है। लेखक के व्यक्तित्व और रचना-कर्म को ठीक से आयत्त करने के लिए उसके सभी प्रकार के लेखन की उपादेयता होती है। तसलीमा के लेखन में यही स्थिति उनके गद्य-साहित्य की है। एक रचनाकार के रूप में तसलीमा का पहला प्रेम कविता रही है। अभी जबकि यह किशोरी ही थीं, उन्होंने कविता-पत्रिका ‘संझा-बाती’ का सम्पादन-प्रकाशन किया था। बांग्लादेश ही नहीं, पश्चिमी बंगाल के समकालीन बांग्ला कवियों की कविताएँ भी उन्होंने उसमें प्रकाशित की थीं। तब से ही वह कविताएँ लिखती आ रही हैं। यद्यपि अनुवाद में कविता का काफी कुछ खो जाता है लेकिन फिर भी उनकी कविताओं के अनुशीलन से हम उनमें स्पन्दित भावनाओं को काफी-कुछ पा लेते हैं। हिन्दी में अब तक उनकी कविताओं के पाँच संग्रहों का अनुवाद हुआ हैµतसलीमा नसरीन की कविताएँ; यह दुख: यह जीवन; मुझे मुक्ति दो; कुछ पल साथ रहो; और बन्दिनी। उपर्युक्त संग्रहों की बहुत-सी कविताओं का मूल-स्वर प्रेम और संघर्ष का है। संघर्ष उनके जीवन में प्रारम्भ से ही रहा है और उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। उनका संघर्ष अस्तित्व और नारी स्वातन्त्रय के लिए है। यह संघर्ष आज भी बना हुआ है। लेकिन प्रेम के लिए कसक भी, तमाम संघर्षों के साथ-साथ, उनके हृदय में पलती रही है। विवाह-प्रथा का विरोध करते हम उन्हें उनके स्कूली-जीवन से ही देखते हैं लेकिन यह विस्मयकारी है कि इस विरोध के समान्तर हम उन्हें प्रेम की ललक को पोसते भी पाते हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथा साहित्य, ऐतिहासिक उपन्यास
Lajja
‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोडे़ जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन है? कहना न होगा कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन, जिन्होंने बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा, भूल गये कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि भारत कोई विच्छिन्न जम्बूद्वीप नहीं है। भारत में यदि विष फोडे़ का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पडे़गा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम से कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फैल जाएगा। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का ख़याल रखना चाहिए और एक ऐसे सौहार्दपूर्ण समाज की रचना करनी चाहिए जिसमें हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य सभी समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
MERE BACHPAN KE DIN
जिन्दगी की मोहर के तौर पर तस्लीमा नसरीन की यह किताब वैसी ही है जैसा एक अछूत का स्पर्श, और उससे भी कुछ ज्यादा। शोषण और धिक्कार के सामाजिक यथार्थ की सैरबीन के आरपार यह जाति व्यवस्था की झूठी योग्यता परखती है और छद्म मैरिट तन्त्र को चुनौती देती हुई महान मेधा के साथ दुनिया में दाखिल होती है। यह विनीत और संकोची है, लगभग नश्वर, विस्मय और जादू से भरे हुए एक नन्हे से बच्चे की नाज़ुक आँखें हैं, जो अपने परिवार के लिए रोजी कमाने की कोशिश कर रहा है जबकि इस उम्र में उसे खेलकूद के मैदान में या स्कूल में होना चाहिए था। ‘बेचैन’ यथा नाम तथा गुण, सदा के बेचैन हैं जैसा कि हिन्दी में इस मुहावरे का मतलब होता है, लेकिन उनकी इस अद्भुत ‘आत्म-पहचान’ में एक आत्मविश्वास और निरुद्विग्नता है जो सिर्फ महान साहित्य की बारीकी और संवेदना से अनुभूत और अभिव्यक्त हो सकती है। आप उसमें संघर्ष का एक पूरा इतिहास पायेंगे, रोजमर्रा की जिन्दगी के पारदर्शी प्रसंगों और यथास्थिति में जीने की इच्छा को नकारने की पूरी चेतना पायेंगे–पूर्व निश्चित साँचों को नकारते हुए, अपराध भाव या मानसिक दासता भाव के बिना यथार्थ को देखते और स्वीकारते हुए।
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Hindi Books, Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
MERE BACHPAN KE DIN (PB)
जिन्दगी की मोहर के तौर पर तस्लीमा नसरीन की यह किताब वैसी ही है जैसा एक अछूत का स्पर्श, और उससे भी कुछ ज्यादा। शोषण और धिक्कार के सामाजिक यथार्थ की सैरबीन के आरपार यह जाति व्यवस्था की झूठी योग्यता परखती है और छद्म मैरिट तन्त्र को चुनौती देती हुई महान मेधा के साथ दुनिया में दाखिल होती है। यह विनीत और संकोची है, लगभग नश्वर, विस्मय और जादू से भरे हुए एक नन्हे से बच्चे की नाज़ुक आँखें हैं, जो अपने परिवार के लिए रोजी कमाने की कोशिश कर रहा है जबकि इस उम्र में उसे खेलकूद के मैदान में या स्कूल में होना चाहिए था। ‘बेचैन’ यथा नाम तथा गुण, सदा के बेचैन हैं जैसा कि हिन्दी में इस मुहावरे का मतलब होता है, लेकिन उनकी इस अद्भुत ‘आत्म-पहचान’ में एक आत्मविश्वास और निरुद्विग्नता है जो सिर्फ महान साहित्य की बारीकी और संवेदना से अनुभूत और अभिव्यक्त हो सकती है। आप उसमें संघर्ष का एक पूरा इतिहास पायेंगे, रोजमर्रा की जिन्दगी के पारदर्शी प्रसंगों और यथास्थिति में जीने की इच्छा को नकारने की पूरी चेतना पायेंगे–पूर्व निश्चित साँचों को नकारते हुए, अपराध भाव या मानसिक दासता भाव के बिना यथार्थ को देखते और स्वीकारते हुए।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nahin, Kahin Kuchh Bhi Nahin…
TASLIMA NASRIN
तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की लेखिका हैं। उनकी आत्मकथा का 6वां खंड ‘नहीं,कहीं कुछ भी नहीं..’ के रोप में पाठकों के सामने है जिसे उन्होने अपनी माँ को समर्पित किया है। जिसमे उनके जीवन के वो पल मौजूद है जो उनकी माँ को केंद्र में रख कर लिखे हैं।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nahin, Kahin Kuchh Bhi Nahin…
TASLIMA NASRIN
तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की लेखिका हैं। उनकी आत्मकथा का 6वां खंड ‘नहीं,कहीं कुछ भी नहीं..’ के रोप में पाठकों के सामने है जिसे उन्होने अपनी माँ को समर्पित किया है। जिसमे उनके जीवन के वो पल मौजूद है जो उनकी माँ को केंद्र में रख कर लिखे हैं।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nirvasan
तसलीमा नसरीन की ‘निर्वासन’ एक स्त्री का दिल दहला देने वाला ऐसा सच्चा बयान है जिसमें वह खुद को अपने घर बंग्लादेश, फिर कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) और बाद में भारत से ही निर्वासित कर दिए जाने पर, दिल में वापसी की उम्मीद लिए पश्चिमी दुनिया के देशों में एक यायावर की तरह भटकते हुए अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर कर दिए जाने की कहानी कहती है। इसमें उन दिनों में लेखिका के दर्द, घुटन और कशमकश के साथ धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया की आपसी मिली भगत का कच्चा चिट्ठा सामने आता है। कई तथाकथित संभ्रान्त चेहरे बेनकाब होते हैं। बंग्लादेश में जन्मी लेखिका तसलीमा नसरीन, जो मत प्रकाश करने के अधिकार के पक्ष में पूरे विश्व में एक आन्दोलन का नाम हैं और जो अपने लेखन की शुरुआत से ही मानवतावाद, मानवाधिकार, नारी-स्वाधीनता और नास्तिकता जैसे मुद्दे उठाने के कारण धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध झेलती रही हैं, की आत्मकथा के तीसरे खण्ड -‘द्विखण्डतो’ पर केवल इस आशंका से की इससे एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो सकती हैं, पश्चिम बंगाल की सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। पूरे एक साल नौ महीने छब्बीस दिन निषिद्ध रहने के बाद, हाईकोर्ट के फैसले पर यह पुस्तक इस प्रतिबन्ध से मुक्त हो सकी। पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश में अलग-अलग नामों से प्रकाशित इस पुस्तक के विरोध में उनके समकालीन लेखकों ने कुल इक्कीस करोड़ रुपए का दावा पेश किया। पर यह सब कुछ तसलीमा को सच बोलने और नारी के पक्ष में खड़ा होने के अपने फैसले से डिगा नहीं सका। ‘निर्वासन’ भी इसी की एक बानगी है।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan, उपन्यास
Priya Taslima Nasrin
धार्मिक कट्टरपंथियों के आंदोलन, हत्या की धमकी और सरकारी गिरफ्तारी के आदेश से विवश होकर तसलीमा नसरीन को भूमिगत होने के लिए देश छोड़ना पड़ा। प्रतिक्रियाशील संगठनों के आंदोलनों के साथ-साथ दुनिया के प्रगतिवादी खेमों में एक और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। तसलीमा नसरीन के समर्थन में विभिन्न देशों के विभिन्न भाषाओं के लेखकों ने ‘प्रिय तसलीमा नसरीन’ शीर्षक से पत्र-पत्रिकाओं में खुली चिट्ठी लिखना शुरू किया। कट्टरपंथियों के विरोध में लिखी गयी विचारोत्तेजक चिट्ठियों में से चुनी गयी चिट्ठियों का यह संकलन-प्रिय तसलीमा नसरीन !
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