बहुरूपी
Author : Vijay Verma, Ashok Vajpeyi
हिन्दी में एक उक्ति है- “मैदा इक पकवान बहुत, बैठ कबीरा जीम”। मैं इसको साहित्य और कला के विभिन्न रूपों पर घटाकर देखता हूँ: देखने में ये सब अलग-अलग और स्वायत्त इकाइयाँ हैं लेकिन इस सब में प्रवाहित-स्पंदित कुछ समान प्राण-तत्त्व हैं:- जागृत संवेदनशीलता, चेतन कल्पनाशीलता तथा अभ्यास से सान चढ़ाया हुआ रचनात्मक-सृजनात्मक कौशल, जो इन सब में एक एकसूत्रता के बायस बनते हैं। यूँ देखें तो ये सब एक तराशे हुए हीरे के अलग-अलग रुख जैसे हैं।
सार यह है कि विशेषज्ञता के लिए, अपनी रुचि, रुझान और क्षमता के अनुरूप, भले ही हम इन परस्पर सम्बद्ध इकाइयों और अनुशासनों में से किसी एक या किन्हीं एक या दो को चुन लें लेकिन एक समृद्ध सांस्कृतिक व्यक्तित्व पाने के लिए यह जरूरी है कि हमें शेष इकाइयों का भी ‘संवेदनात्मक बोध’ (अभिव्यक्ति विलास गुप्ते की) हो।
इस प्रकार का संवेदनात्मक बोध रखने की मेरी अपनी कोशिश का प्रतिफलन इस संग्रह के लेखों में है। यह एक विविधा है, साहित्य और कला के कई रूपों-पक्षों का संप्रयोजन। इसी से नाम दिया है “बहुरूपी”।
इस संग्रह की विषय-वस्तु में शास्त्र और लोक, दोनों की उपस्थिति है। असल में दोनों को अलग करके देखने की दृष्टि ही गलत है। इस एकांगिकता का एक नुकसान तो हम शहरवालों को यह हुआ है कि अपनी सारी सहजता, अकृत्रिमता और नैसर्गिक रचनात्मकता के साथ, लोक हमारे लिए बेगाना हो गया है। इसका एक उदाहरण यह है कि मुहावरों और कहावतों के उस अकूत खजाने से, जिससे लोक सम्पन्न है, हम महरूम हो गए हैं।
दूसरा उदाहरण यह है कि हमारे लिए जल-संचयन का महत्त्व और तरीके तथा प्रकृति को समझने-पढ़ने की कला बेमानी हो गए हैं। इस संग्रह में कहावतों और पहेलियों तथा जल पर एक-एक लेख सम्मिलित है। यह दुःखद है कि कुछ तो शहरों की देखादेखी और कुछ कालगति के कारण हमारा लोक सिमटता-मिटता, भदूकरा होता जाता है।
Rs.600.00
बहुरूपी
Author : Vijay Verma, Ashok Vajpeyi
Weight | .570 kg |
---|---|
Dimensions | 8.66 × 5.57 × 1.57 in |
Author : Vijay Verma, Ashok Vajpeyi
Language : Hindi
ISBN : 9788195138159
Edition : 2021
Publisher : RG GROUP
Only logged in customers who have purchased this product may leave a review.
There are no reviews yet.