Author- Kapil
ISBN – 9789386054517
Lang. – Hindi
Pages – 16
Binding Style – Soft Cover
CHHATRAPATI SHIVAJI
छत्रपती शिवाजी महाराज (1630-1680 ई.) भारत के एक महान राजा एवं रणनीतिकार थे… सन् 1674 में रायगढ़ में उनका राज्यभिषेक हुआ और वह “छत्रपति” बने। छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों कि सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया।
Rs.75.00
Weight | .150 kg |
---|
Based on 0 reviews
Only logged in customers who have purchased this product may leave a review.
Related products
-
Literature & Fiction, Vani Prakashan
SMARAN MIAN HAI AAJ JEEVAN
0 out of 5(0)स्मरण में है आज जीवन अस्वस्थता के दिनों में एक बार हितैषियों की इस माँग पर कि उन्हें आत्मकथा लिखनी चाहिए, निराला ने यह कहा कि मैं अपने बारे में सब कुछ लिख चुका हूँ, मेरा साहित्य पढ़िए। वास्तव में निराला ने अपने साहित्य में ही अपने जीवन का बहुत कुछ शामिल किया है। उनकी प्रसिद्ध लम्बी कविताओं की तो कुछ विद्वानों ने उस तरह से व्याख्या भी की है। निराला की उनके गद्य-साहित्य में बार-बार जो जीवन आता है, जो चरित्र कविताओं आते हैं, निराला और उनके परिवेश में उनकी पहचान संभव है। असल में निराला ने अपनी अनुभूति की ही अपने साहित्य में ढाला। अपने समय, अपने परिवेश से यही संवाद निराला-साहित्य को छायावाद-युग में विशिष्टता प्रदान करता है। इस पुस्तक में निराला की कुछ ऐसी गद्य-रचनाएँ शामिल की गयी हैं, जो उन्होंने समय-समय पर अपने परिवेश, अपने आस-पड़ोस, अपने जीवन पर पर लिखीं। कुछ मिलाकर ये रचनाएँ एक ऐसी चौहदी बनाती हैं कि न सिर्फ़ निराला के जीवन, बल्कि काफ़ी कुछ उनके साहित्य, उनकी रचना-प्रक्रिया को समझने में भी आसानी होती है। हालाँकि निराला के साहित्य की ही तरह, उनके जीवन में भी इतनी विविधताएँ थीं कि उसका पूरी तरह आकलन कर पाना या उसकी कोई व्यवस्था बनाना संभव नहीं है। बल्कि निराला की विशेषता ही यही है कि वह हर चौहदी को तोड़ती प्रतीत होती है। तो भी इस पुस्तक से इतना तो है कि महाप्राण निराला के जीवन के विविध पक्षों की एक झाँकी सी यह पुस्तक बनाती है। यही इस पुस्तक की सफलता है और उपलब्धि भी। निराला ने गद्य को। ‘जीवन-संग्राम की भाषा’ कहा था जोकि इस पुस्तक को। पढ़ते हुए बार-बार स्मरण आता है।
SKU: n/a -
Literature & Fiction, Vani Prakashan
Wah Kahan Hai ?
0 out of 5(0)पिछले कुछ वर्षों से मेरा स्फुट व्यंग्य-लेखन प्रायः स्थगित है। इन वर्षों में या तो उपन्यास ही लिख पाया हूँ, अथवा आवश्यक होने पर व्यक्तिगत निबन्ध। अपनी सृजन-प्रक्रिया में होते हुए इस परिवर्तन से परिचित तो हूँ, किन्तु उस पर मेरा वश नहीं है। जीवन के अनुभवों के गहरे और विस्तृत होने के साथ-साथ या तो छोटी रचनाएँ भी बहुत कुछ कहने की आवश्यकता की मजबूरी में खिंचकर लम्बी होती जाती हैं, या किसी उपन्यास के लेखन में लगे होने के कारण छोटी रचनाओं के विचार स्वयं ही टल जाते हैं, या मैं ही उन्हें टाल देता हूँ। यह तो जानता हूँ कि ‘कथा’ तथा ‘व्यंग्य’ दोनों तत्त्व मेरे भीतर ऊधम मचाते रहते हैं, किन्तु लौटकर फिर छोटी कहानियों तथा छोटे व्यंग्यों पर आऊँगा, या अब उपन्यास तथा व्यंग्य-उपन्यास ही लिखूँगा—यह कहना कठिन है। अपनी व्यंग्य-रचनाओं में से ‘श्रेष्ठ’ का चुनाव कैसे करूँ? श्रेष्ठ रचनाएँ किन्हें मानूँ, जो मुझे प्रिय हैं या जो प्रशंसित हुई हैं? जो लोगों का मनोरंजन करती हैं या जो प्रखर प्रहार करती हैं? जिनमें बात कटु है या जिनका शिल्प नया बन पड़ा है? मुझे लगता है कि लेखक एक सीमा तक ही अपनी रचनाओं के प्रति तटस्थ हो सकता है। फिर भी उसके लिए अपनी रचनाओं में से कुछ का चुनाव असम्भव हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अन्य लोग भी तो अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते। इसलिए मेरा ही चुनाव क्या बुरा है! अतः मैंने बिना किसी से पूछे, अपने-आप अपनी रचनाएँ छाँट डाली हैं। वे रचनाएँ श्रेष्ठ हैं या नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता। मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि अपनी रचनाओं में से चुनाव मैंने अपनी इच्छा और पसन्द से किया है। ‘श्रेष्ठता’ के साथ मैंने प्रतिनिधित्व का भी ध्यान रखा है। प्रयत्न किया है कि विषय, शिल्प तथा तकनीक के वैविध्य को भी महत्त्व दूँ। व्यंग्य को स्वतन्त्र विधा मानने के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि व्यंग्य आज विभिन्न विधाओं में लिखा जा रहा है—कविता में, कहानी में, निबन्ध में, उपन्यास में, नाटक में। किन्तु ऐसी आपत्ति करने वाले भूल जाते हैं कि कथा-साहित्य भी महाकाव्यों में लिखा गया, नाटकों में लिखा गया, बृहत् उपन्यासों, लघु उपन्यासों, कहानियों तथा लघुकथाओं में लिखा गया। कविता महाकाव्य, खंडकाव्य, काव्य, गीत, नाटक इत्यादि छोटे-बड़े अनेक रूपों में लिखी गयी। नाटक पद्य-रूपक, गीति-काव्य, स्वतन्त्र नाटक, एकांकी इत्यादि रूपों में लिखा गया। इन सारी विधाओं पर विचार करने से, सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि विधा की दृष्टि से साहित्यकार के व्यक्तित्व का मूल तत्त्व ही निर्णायक तत्त्व है: जो व्यंग्य के सन्दर्भ में साहित्यकार का सात्विक, सृजनशील तथा कलात्मक, वक्र आक्रोश है। इतनी बात हो जाने के पश्चात, आगे का वर्ग-विभाजन भी किया जा सकता है कि व्यंग्य की कैसी रचना को, शुद्ध व्यंग्य माना जाये और किस रचना के साथ अन्य विधाओं का मिश्रण होने के कारण किसी अन्य विशेषण की आवश्यकता होगी। हिन्दी के व्यंग्य-साहित्य को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से, सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों के कारण, भारतेन्दु-युग के पश्चात्त व्यंग्य का टूटा हुआ सूत्र न केवल फिर से पकड़ा गया, वरन् नवीनता और निखार के साथ दृढ़ किया गया। ‘व्यंग्य संकलन’ के नाम से पुस्तकें छपीं, उनमें ऐसे व्यंग्यात्मक निबन्ध थे, जो न तो निबन्ध की परम्परागत परिभाषा में आते हैं, न कहानी की। हिन्दी के स्वातन्त्रयोत्तर व्यंग्य साहित्य की रीढ़ ये रचनाएँ ही हैं, और इन्हीं रचनाओं ने व्यंग्य को हिन्दी साहित्य में स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस मूल विधा की परिधि पर व्यंग्य-कथाएँ, व्यंग्य-उपन्यास तथा व्यंग्य-नाटक स्थापित हुए। कविता में भी व्यंग्य लिखे अवश्य गये, किन्तु कवि इस विधा की स्वतन्त्रता के विषय में इतने गम्भीर दिखाई नहीं पड़े, जितने कि गद्य-लेखक। व्यंग्य-कवियों की महत्वाकांक्षा कवि बनने की ही रही, गद्य में लिखने वाले व्यंग्यकारों की, व्यंग्यकार बनने की। कुछ अतिरिक्त शास्त्रीय समीक्षक व्यंग्य को केवल एक ‘शब्दशक्ति’ के रूप में ही स्वीकार करते हैं। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि हिन्दी साहित्य के रीतिकाल तक, व्यंग्य या तो एक शब्दशक्ति था, या अन्योक्ति, वक्रोक्ति अथवा समासोक्ति जैसा अलंकार। किन्तु समय और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ विधाओं का विकास भी होता है, और नयी विधाओं का निर्माण भी। हम व्यंग्य को आज के सन्दर्भ में देखें तो पाएँगे कि आज के व्यंग्य-उपन्यासों, व्यंग्य-निबन्धों, व्यंग्य-कथाओं तथा व्यंग्य-नाटकों में व्यंग्य के शब्दशक्ति अथवा अलंकार मात्र नहीं हैं। उसका विकास हो चुका है और वह शास्त्रकार से माँग करता है कि वह व्यंग्य-विधा के लक्षणों का निर्माण करे। किसी विधा को एक ही भाषा के सन्दर्भ में देखना भी उचित नहीं है। सम्भव है कि यह कहा जा सके कि अमुक भाषा में व्यंग्य नहीं है। किन्तु संसार की किसी भाषा में व्यंग्य अथवा ‘सैटायर’ स्वतन्त्र विधा ही नहीं है, और वह स्वतन्त्र विधा हो ही नहीं सकता, ऐसा कहना मुझे उचित नहीं जँचता। —नरेन्द्र कोहली
SKU: n/a -
Literature & Fiction, Vani Prakashan
Oh Re! Kisan
0 out of 5(0)“सृष्टि के सारे ग्रह पुल्लिंग हैं किन्तु एकमात्र पृथ्वी ही है जिसे स्त्रीलिंग कहा गया है क्योंकि पृथ्वी पर जीवन है, अर्थात् वह स्त्री ही होती है जो हमारे जन्म-जीवन का कारण होती है। सुश्री अंकिता जैन के द्वारा कृषि और कृषक पर लिखना मुझे आनन्द और आशा से भरता है। अंकिता की दृष्टि व्यापक ही नहीं गहरी भी है। उन्होंने ओह रे! किसान में बहुत गहरे उतरकर भूमिपुत्रों की परिस्थिति और मनःस्थिति का बेहद प्रभावशाली दृश्य प्रस्तुत किया है। नौकरी हो या व्यापार, संसार के सभी कर्म हम अपनी सुविधा से, अपने मन के मुताबिक़ कर सकते हैं, किन्तु कृषि एकमात्र कर्म है जिसे हमें मन के नहीं मौसम के अनुसार करना होता है, वह भी बिना रुके और बिना थके। सुश्री अंकिता को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, मुझे विश्वास है कि किसानों की कथा और व्यथा को समाज और सरकार के सामने प्रस्तुत करने वाला उनका रचनाश्रम हमारी दृष्टि में ही नहीं हमारे दृष्टिकोण में भी सार्थक, व्यापक, सकारात्मक परिवर्तन का कारण होगा। जय कृषि-जय ऋषि! -आशुतोष राना अभिनेता और साहित्यकार “
SKU: n/a
There are no reviews yet.