Author – Premchand
ISBN – 9789350488300
Language – Hindi
Pages – 272
Weight | .290 kg |
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Dimensions | 8.7 × 5.51 × 1.57 in |
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
Wah Kahan Hai ?
0 out of 5(0)पिछले कुछ वर्षों से मेरा स्फुट व्यंग्य-लेखन प्रायः स्थगित है। इन वर्षों में या तो उपन्यास ही लिख पाया हूँ, अथवा आवश्यक होने पर व्यक्तिगत निबन्ध। अपनी सृजन-प्रक्रिया में होते हुए इस परिवर्तन से परिचित तो हूँ, किन्तु उस पर मेरा वश नहीं है। जीवन के अनुभवों के गहरे और विस्तृत होने के साथ-साथ या तो छोटी रचनाएँ भी बहुत कुछ कहने की आवश्यकता की मजबूरी में खिंचकर लम्बी होती जाती हैं, या किसी उपन्यास के लेखन में लगे होने के कारण छोटी रचनाओं के विचार स्वयं ही टल जाते हैं, या मैं ही उन्हें टाल देता हूँ। यह तो जानता हूँ कि ‘कथा’ तथा ‘व्यंग्य’ दोनों तत्त्व मेरे भीतर ऊधम मचाते रहते हैं, किन्तु लौटकर फिर छोटी कहानियों तथा छोटे व्यंग्यों पर आऊँगा, या अब उपन्यास तथा व्यंग्य-उपन्यास ही लिखूँगा—यह कहना कठिन है। अपनी व्यंग्य-रचनाओं में से ‘श्रेष्ठ’ का चुनाव कैसे करूँ? श्रेष्ठ रचनाएँ किन्हें मानूँ, जो मुझे प्रिय हैं या जो प्रशंसित हुई हैं? जो लोगों का मनोरंजन करती हैं या जो प्रखर प्रहार करती हैं? जिनमें बात कटु है या जिनका शिल्प नया बन पड़ा है? मुझे लगता है कि लेखक एक सीमा तक ही अपनी रचनाओं के प्रति तटस्थ हो सकता है। फिर भी उसके लिए अपनी रचनाओं में से कुछ का चुनाव असम्भव हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अन्य लोग भी तो अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते। इसलिए मेरा ही चुनाव क्या बुरा है! अतः मैंने बिना किसी से पूछे, अपने-आप अपनी रचनाएँ छाँट डाली हैं। वे रचनाएँ श्रेष्ठ हैं या नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता। मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि अपनी रचनाओं में से चुनाव मैंने अपनी इच्छा और पसन्द से किया है। ‘श्रेष्ठता’ के साथ मैंने प्रतिनिधित्व का भी ध्यान रखा है। प्रयत्न किया है कि विषय, शिल्प तथा तकनीक के वैविध्य को भी महत्त्व दूँ। व्यंग्य को स्वतन्त्र विधा मानने के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि व्यंग्य आज विभिन्न विधाओं में लिखा जा रहा है—कविता में, कहानी में, निबन्ध में, उपन्यास में, नाटक में। किन्तु ऐसी आपत्ति करने वाले भूल जाते हैं कि कथा-साहित्य भी महाकाव्यों में लिखा गया, नाटकों में लिखा गया, बृहत् उपन्यासों, लघु उपन्यासों, कहानियों तथा लघुकथाओं में लिखा गया। कविता महाकाव्य, खंडकाव्य, काव्य, गीत, नाटक इत्यादि छोटे-बड़े अनेक रूपों में लिखी गयी। नाटक पद्य-रूपक, गीति-काव्य, स्वतन्त्र नाटक, एकांकी इत्यादि रूपों में लिखा गया। इन सारी विधाओं पर विचार करने से, सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि विधा की दृष्टि से साहित्यकार के व्यक्तित्व का मूल तत्त्व ही निर्णायक तत्त्व है: जो व्यंग्य के सन्दर्भ में साहित्यकार का सात्विक, सृजनशील तथा कलात्मक, वक्र आक्रोश है। इतनी बात हो जाने के पश्चात, आगे का वर्ग-विभाजन भी किया जा सकता है कि व्यंग्य की कैसी रचना को, शुद्ध व्यंग्य माना जाये और किस रचना के साथ अन्य विधाओं का मिश्रण होने के कारण किसी अन्य विशेषण की आवश्यकता होगी। हिन्दी के व्यंग्य-साहित्य को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से, सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों के कारण, भारतेन्दु-युग के पश्चात्त व्यंग्य का टूटा हुआ सूत्र न केवल फिर से पकड़ा गया, वरन् नवीनता और निखार के साथ दृढ़ किया गया। ‘व्यंग्य संकलन’ के नाम से पुस्तकें छपीं, उनमें ऐसे व्यंग्यात्मक निबन्ध थे, जो न तो निबन्ध की परम्परागत परिभाषा में आते हैं, न कहानी की। हिन्दी के स्वातन्त्रयोत्तर व्यंग्य साहित्य की रीढ़ ये रचनाएँ ही हैं, और इन्हीं रचनाओं ने व्यंग्य को हिन्दी साहित्य में स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस मूल विधा की परिधि पर व्यंग्य-कथाएँ, व्यंग्य-उपन्यास तथा व्यंग्य-नाटक स्थापित हुए। कविता में भी व्यंग्य लिखे अवश्य गये, किन्तु कवि इस विधा की स्वतन्त्रता के विषय में इतने गम्भीर दिखाई नहीं पड़े, जितने कि गद्य-लेखक। व्यंग्य-कवियों की महत्वाकांक्षा कवि बनने की ही रही, गद्य में लिखने वाले व्यंग्यकारों की, व्यंग्यकार बनने की। कुछ अतिरिक्त शास्त्रीय समीक्षक व्यंग्य को केवल एक ‘शब्दशक्ति’ के रूप में ही स्वीकार करते हैं। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि हिन्दी साहित्य के रीतिकाल तक, व्यंग्य या तो एक शब्दशक्ति था, या अन्योक्ति, वक्रोक्ति अथवा समासोक्ति जैसा अलंकार। किन्तु समय और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ विधाओं का विकास भी होता है, और नयी विधाओं का निर्माण भी। हम व्यंग्य को आज के सन्दर्भ में देखें तो पाएँगे कि आज के व्यंग्य-उपन्यासों, व्यंग्य-निबन्धों, व्यंग्य-कथाओं तथा व्यंग्य-नाटकों में व्यंग्य के शब्दशक्ति अथवा अलंकार मात्र नहीं हैं। उसका विकास हो चुका है और वह शास्त्रकार से माँग करता है कि वह व्यंग्य-विधा के लक्षणों का निर्माण करे। किसी विधा को एक ही भाषा के सन्दर्भ में देखना भी उचित नहीं है। सम्भव है कि यह कहा जा सके कि अमुक भाषा में व्यंग्य नहीं है। किन्तु संसार की किसी भाषा में व्यंग्य अथवा ‘सैटायर’ स्वतन्त्र विधा ही नहीं है, और वह स्वतन्त्र विधा हो ही नहीं सकता, ऐसा कहना मुझे उचित नहीं जँचता। —नरेन्द्र कोहली
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Literature & Fiction, Prabhat Prakashan
JEEVAN VRIKSHA (PB)
0 out of 5(0)जीवन वृक्ष — डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम केवल एक योग्य व प्रतिष्ठित वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि एक संवेदनशील और विचारशील कवि भी हैं। वैज्ञानिक उत्कृष्टता और काव्यमय प्रतिभा का यह संगम वास्तव में अद्भुत है।
इस काव्य-संग्रह की रचनाओं में भारत और इसकी समृद्ध संस्कृति के प्रति डॉ. कलाम का विशेष प्रेम देखने को मिलता है। ईश्वर और अपनी मातृभूमि के प्रति इनके समर्पण और मानवता के प्रति अनुराग की भी इनकी कविताओं में अद्भुत अभिव्यक्ति है। अपनी क्षमता और उपलब्धियों को ईश्वर की देन मानते हुए उन्होंने उन्हें भारतवासियों के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया है। अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने नि:स्वार्थ सेवा, समर्पण और सच्चे विश्वास का संदेश दिया है।
भारतीय समाज को गहराई से जाननेवाले डॉ. कलाम अनुकंपा, तटस्थ भाव, धैर्य और सहानुभूति से समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं।
जीवन के विविध रंगों और माननीय संवेदना से सज्जित डॉ. कलाम की कविताओं का यह वृक्ष एक नया विश्वास, नई छाया, नई आशाओं का संचार करेगा।SKU: n/a -
Literature & Fiction, Vani Prakashan
Yuddh – 1 (Hindi, Narendra Kohali)
0 out of 5(0)युद्ध-1
‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ के अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेज़ी में इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगों के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार एक ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सार्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादात्म्य होता है।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
Sairandhri
0 out of 5(0)नरेन्द्र कोहली
पाण्डवों का अज्ञातवास महाभारत कथा का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और मार्मिक स्थल है । कहा जाये कि यह एक वर्ष ही उनकी असली परीक्षा का काल था । जब उन्हें अपना नैसर्गिक रूप त्याग कर अलग और हीनतर रूप धारण करने पड़ते हैं । सवाल उठता है दुर्योधन की गिध्द-दृष्टि से पाण्डव कैसे बचे रह सकें ? अपने अज्ञातवास के लिए पाण्डवों ने विराट नगर को ही क्यों चुना ? पाण्डवों के शत्रुओं में प्रछन्न मित्र कहाँ थे ? और मित्रों में प्रछन्न शत्रु कहाँ पनप रहे थे ? बदली हुई भूमिकाओं से तालमेल बैठाना पाण्डवों के लिए कितना सुकर या दुष्कर था ? अनेक प्रश्न हैं जो इस प्रसंग में उठते हैं । लेकिन पाण्डवों से भी ज्यादा मार्मिक है द्रौपदी का रूपान्तरण । पाण्डवों को तो किसी-न किसी रूप में भेष बदलने का वरदान मिला हुआ था या उनमें यह गुण स्वाभाविक रूप से मौजूद था। अर्जुन को अगर उर्वशी का श्राप था तो युधिष्ठिर को द्यूत प्रिय होने के नाते कंक बनने में सुविधा थी । भीम वैसे ही भोजन भट्ट और मल्ल विद्या में पारंगत थे। समस्या तो द्रौपदी की थी, जो न केवल सुन्दरी होने के नाते सबके आकर्षण का केंद्र थी बल्कि जिसने कभी सेवा-टहल का काम नहीं किया था। सुदेष्णा जैसी रानियाँ तो उसकी सेवा-टहल करने के योग्य थीं । ऐसी स्थिति में उस एक वर्ष को सैरंध्री बनकर काटना द्रौपदी के लिए कैसी अग्नि परीक्षा रही होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है । द्रौपदी के सौन्दर्य को लेकर सुदेष्णा का भय और विराट की आशंका या फिर वृहन्नला और द्रौपदी की अपनी-अपनी व्यथाएँ । उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली ने इस उपन्यास में की । इसके साथ-साथ अनेक प्रश्नों को छुआ है, इन सबको नरेन्द्र कोहली ने अपनी सुपरिचित शैली में बड़ी सफलता से चित्रित किया है ।
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